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आयुर्वेदका मूल प्राणवाद-पूर्व
श्री पं० कुन्दनलाल न्यायतीर्थ, आदि प्रारम्भ
जैन काल-गणनानुसार अवसर्पिणी युगचक्रके पहिले तीन कालोंमें भोगभूमि रहती है। चौथे कालके साथ कर्मभूमि प्रारम्भ होती है और संभवतः उसीके साथ अन्नाहार तथा साबाध जीवन भी। फलतः त्रिदोषका कोप हुश्रा और जनता बहुत भीत' हो गयी। वे इस युगके आदिपुरुष भगवान ऋषभदेवके पास गये और उनसे समझ सके कि किसी देवी देवताके प्रकोपके कारण नहीं, अपितु जीवनमें व्यतिक्रमके कारण ही वे रोगी हुए हैं। अदिपुरुषने बताया कि आयुके लिए क्या हित कारक है और क्या अहितकारक है। इन दोनों से किस प्रकार क्रमशः रोग शान्त तथा उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार आत्मा तथा शरीरका सम्बन्ध जीवन (आयु), उसमें होने वाले उपद्रवोंका निदान तथा उनकी शान्ति रूप चिकित्सा मय शास्त्र आयुर्वेद का प्रारम्भ हा ।
__ संसारके समान अयुर्वेद भी अनादि अनन्त है । तथापि अाधुनिक ऐतिहासिक परम्पराके अनुसार उपलब्ध पुरातत्त्व सामग्री के आधारसे भी आयुर्वेदका विचार किया जाय तो हम देखते हैं कि ऋग्वेदमें भी अनेक शस्त्र क्रियाश्रों तथा मंणि-मंत्र औषधियोंके उल्लेख है। चन्द्रमाके क्षय तथा श्वित्रकी चिकित्सा, च्यवन ऋषिकी पुनयौवन प्राप्ति ही कथाोंने अश्विनीकुमारोंको वैद्योंका ब्रह्मा बना दिया है। अथर्ववेदमें मणिमंत्र औषधितंत्रकी भरमार सी है। और अग्निवेश-संहित आदिकी तो कहना ही क्या है। वेद भी आगे जाकर यदि देखा जाय और अद्यावधि प्रचलित मान्यताको ही 'वावावाक्यं' न माना जाय तो जैन वाङ्मय के बारहवें अंग दृष्टिवादके भेद पूर्वगतमें १२ वां भेद 'प्राणवाद' है । इस प्राणवादमें अष्टांग शरीरविज्ञानका जो वर्णन है वह ऐतिहासिक दृष्टि से भी आयुर्वेद को सुदूर भूतकाल तक ले जाता है । यह प्राणवाद ही आयुर्वेदका मूल स्रोत है। वेदादि ग्रन्थोंमें उपलब्ध आयुर्वेदका स्पष्ट उल्लेख संकेत करता है कि इनके पूर्व आयुर्वेदका सांगोपांग विवेचन हो चुका था।
१ "..अअवयं परमायुष एव लोके तेषां महद्भयमभूदिह दोषकोपात् ।" २ “आयुर्हिताहित व्याधेर्निदानं शमनं तथा . .रेष आयुर्वेद इति स्मृतः ।"
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