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जैनसमाजका रूप-विज्ञान
अतः देहली जैन महोत्सवके अवसरपर 'भा० दि० जैन परिषद' की स्थापना हुई । नवयुवकों के उत्साहसे परिषदका कार्य दिन प्रति दिन बढ़ने लगा जिसका श्रेय स्व० ब० शीतलप्रसादको सबसे अधिक है।
परिषदने अपने प्रारंभिक कालमें ही स्थितिपालकोंके घोर विरोधकी नीति अपनायी । परिषदके पत्र वीरने इसकी प्रगतिमें साधक मरणभोज, दस्सापूजा, आदि निषेध कार्योंका यथाशक्ति प्रचार किया है।
महासभा तथा परिषदकी दलगत नीतिसे कितने ही विद्वान असन्तुष्ट थे । क्योंकि वैदिक समाज के कट्टर संप्रदाय द्वारा किये जाने वाले आक्रमणोंका स्व० गुरुजीके समान ये दोनों सरथाएं सामना करनेमें असमर्थ थीं। इस लिए जैन आम्नाय पर आये घातक संकटको टालनेके लिए तटस्थ नीतिकी श्रेष्ठतामें विश्वास करने वालों द्वारा शास्त्रार्थों के बीच स्वयमेव “भा० दि० जैनसंघ' की स्थापना सन १६३३ के लगभग की गयी।
किन्तु भगवान् वीतरागके उपासक जैन समाजमें आज तक इतनी राग होनता न आयी कि वे सामाजिक क्षेत्र में स्याद्वादमय व्यवहार करते या जैन समाज एवं धर्म का विकास प्रकाश होने देते ।
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बुन्देल खण्ड
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