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तुमने मोरी कई न मानी, सीता ल्याये बिरानी । जिनकी जनक सुता रानी हैं, वे हर अंतरध्यानी । हेम कंगूर धूरमें मिलजें, लङ्काकी राजधानी । लै केँ मिलौ सिकाउत जेऊ, मंदोदरी 'ईसुर' आप हात हरयानी, श्रानी मौत निसानी ।
सयानी ।
पाप करने से क्या कभी किसीने मेवा पाया है ? उससे तो नाश ही हो जाया करता है। देखिये उस रावण के यहां जिसको अभिमान था कि उसके एक लाख पूत और सवा लाख नाती हैं, यथा -
कृष्णावतार
इक लख पूत सवा लख नाती, ता रावन घर दिया न बाती ।
उस रावणके घर में कबूतर रहने लगे और महलों पर कौए उड़ने लगे । कोई पानी देने वाला न रहा, 'लुस पिण्डोदक क्रिया' वाली बात हो गयी
को रौ रावन के पनदेवा, बिना किये हर सेवा । करना सिंघ करौ कुल भर कौ, एक नाड कौ खेवा । कालकंद अवधेस काट दये, जै बोलत सब देवा । बांकन लगे काग महलन पै, भीतर बसत परेवा । 'ईसुर' नास मिटाउत पाउत, पाप करें को
मेवा ।
बुन्देली लोक कवि ईसुरी
संसारी ।
गिरधारी, हमने कीनी यारी । होती, बहुत हती ऊपर तबियत भरी हमारी । जाकी, जनम जिंदगी हारी । मूरत, गोरी नई निहारी ।
अपनों तुमें जान
काउ और सें करने हर हर तरां तुमारे तुलसी गङ्गा जामिन
'ईसुर' तकी स्याम की
काले रंग पर सखियोंका व्यंग है, संसार में कालेकी बनस्थित गोरेको अधिक पसंद किया जाता है किन्तु सखियोंने गोरे की तलाश नहीं की, सांवलिया ही पर हर प्रकार संतोष किया और उन ही पर अपना जन्म और जीवन हार बैठी हैं । तुलसी और गङ्गा इसकी साक्षी हैं इससे बड़ी जमानत और किसकी किसे सम्भव है ? इसीलिए आपको अपना ही समझकर हम सबने आपसे मित्रता की ।
श्री राधिकाजीको ये अपनी उपास्यदेवी मानते थे, एकबार जब इनके सिरपर गाज (विजली) गिरते गिरते बच गयी तब आपने कहा था कि
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