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गुरुवर श्री गणपति प्रसादजी चतुर्वेदी श्री श्याम सुन्दर वादल
प्राचीन भारतके पुराने तपोवनों एवं गुरुकुलोंको शिक्षाका अादर्श निःस्वार्थ भावसे अपने चारों ओर ज्ञानका वितरण करना है। गुरुकुलके उपाध्यायके समक्ष शिक्षण एक पवित्र कर्तव्य था जिसमें धनका कोई खास महत्त्व नहीं था। अाजकी अत्यन्त व्यय-साध्य और व्यापारिकता भरी शिक्षाप्रणालीके युगमें रहनेवाले लोग तो उस समयके कुलपतिकी परिभाषा जानकर आश्चर्य करेंगे कि दस हजार विद्यार्थियों के सम्यक् भरण, पोषण और शिक्षणका भार उसपर रहता था। परन्तु ऐसे लोगोंकी अभी भी कमी नहीं है जो इस परम्पराको आज भी जीवित रक्खे हुए हैं । अपने पूर्व-पुण्यों के फल-स्वरूप मुझे ऐसे ही एक महापुरुषके चरणोंमें बैठकर अध्ययन करनेका सुयोग मिला है । नीचेकी पंक्तियोंमें उनका पुण्य चरित्र चित्रित है।
बुन्देलखंडके मऊ नगरके जुझौतिया ब्राह्मण-वंशमें श्री नन्हैलाल चौबेके द्वितीय पुत्रके रूपमें मेरे गुरुवर वि० संवत् १६२७ की ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमीको अवतीर्ण हुए थे। बचपनमें ही जननी और जनकके दिवगंत हो जाने के कारण चिरकाल तक आपपर बड़े भाईका कठोर संरक्षण रहा। "क्योरे गनपति पुरुखोंकी किसानी मिटा दै है रे। जौ गजाधर न हो तो दाने-दाने को तरसतो" इत्यादि वाग्वाणों की वर्षा होती रहती थी।
चौबे जी अपने अग्रज के किसानी परिश्रमको जानते थे, उन्हें पिताका स्थानीय मानते थे. अतएव कभी उनकी बातोंका बुरा नहीं मानते थे। इन्होंने सब कुछ सहते हुए अध्ययन जारी रखा। चौथी कक्षा तक हिन्दी और उर्दू का ज्ञान प्राप्तकर आपने पन्द्रह वर्षके वयमें संस्कृतके अध्ययनका प्रारंभ किया था। श्री स्वामीप्रसाद सीरौटीयासे सारस्वत और सिद्धांतचन्द्रिका अापने दो ही वर्षमें समाप्त कर दी । सत्रह वर्षकी श्रायुमें आपने अपने घर पर एक निःशुल्क संस्कृत पाठशाला स्थापित कर दी थी। अब अध्ययन और अध्यापन दोनों साथ साथ चलने लगे।
इन दिनों छतरपुर और मऊरानीपुर शेरवाजीके प्रसिद्ध अखाड़े बने हुए थे। छतरपुरमें इस साहित्यके आचार्य स्व० श्री गंगाधरजी व्यास थे और मऊरानीपुरमें पुरोहितजी। सयय समय पर इन दोनों
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