Book Title: Varni Abhinandan Granth
Author(s): Khushalchandra Gorawala
Publisher: Varni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 668
________________ जीवन के खण्डहर जगह नहीं थी। इसी कीचड़ में वह बड़ा इक टूटी चारपायी पर जिसका विनाव झूलकर जमीनमें लग रहा था, लेटा था । मच्छर उसकी सेवा कर रहे थे, उसे अपना मधुर संगीत सुना रहे थे । वह उन्हें कभी इस तरफ हाथ पटक कर खदेड़ता था कभी उस तरफ । मेरे मन में पाया कि यदि दो रुपया और पासमें होते तो उसकी नजर करता। तब भी उसका मन लेने की गरजसे मैंने उसे आवाज लगायी वह मेरी श्रावाज सुनते ही बड़ा लजित सा विवश और लाचार सा कराहता हुआ चारपायीसे उठने की कोशिश करता हुआ बोला-'मालिक बीमार हूं।' सोचा--'तू बीमार न हो तो कौन हो ? खैरियत यही है कि तू अभी तक जीवित है । ऐसी जगह में ढोर भी यदि बन्द कर दिया जावे तो शायद रात भरमें खतम हो जावें ।' "पड़े रहो बब्बा" मैंने कहा। "कैसे पड़ा रहूं। आप मेरे घर आये हैं।" मैंने बहुत कहा पर बुड्डा न माना। आखिर अपने बुढ़ापेसे लड़ता हुआ लकड़ीके सहारे उस टूटी चारपायीसे उठकर लड़खड़ाता हुश्रा मेरे सामने आ खड़ा हुश्रा। कमरमें वही चिथड़ोंकी लंगोटी थी। शरीर पर वही लाल जीर्ण शीर्ण धोतीका टुकड़ा, वही चिथड़ोंकी लंगोटी थी। शरीरपर यत्रतत्र मच्छड़के काटने से पड़े हुए बड़े बड़े दाग । मैंने कृत्रिम कठोरतापूर्वक पूछा-'क्या बाबा 'मेरे रुपया नई देना।' यद्यपि उन्हें लेने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। "कल हाजिर हो जाय गे । दूसरेका माल कौन हजम होता है।" बुड्ढेने कराहते हुए कहा । मैंने दूसरी तरफ नजर फेंकी, बगलमें एक और कोठा था किवाड़ नदारद थे । उसमें बैल बंधते थे । उसे देखकर और मेरे होश हवास उड़ गये। कीचड़, मूत्र, गोबर आदि उसमें इस तरह सन रहे थे जैसे किसीने दीवाल उठाने के लिए मिट्टीका गारा तैयार किया हो। जब बुड्ढे का यह हाल था तब उसके मवेशियोंका यह होना स्वाभाविक ही था। मेरे न जाने कहां विचार गये ? मैंने उसके घरसे निकल कर एक आदमीसे जो समीप ही बैठा मुह धो रहा था, पूछा-'क्यों भाई इस बुड्ढे की कुछ सहायता नहीं कर सकते ? देखो कैसो बुरी हालतमें रह रहा है। सब लोग मिलकर हाथ लगवा दो तो बेचारेका घर ठीक हो जावे । ऐसे में तो मवेशी ही नहीं रह सकते । एक औरत दूर ही से कुछ नाराज सी होकर बोली-'उसकी लड़की है, दामाद है, जब वे नई करते तो दूसरे किसकी गरज है, करै न अपना ! मैंने कहा-'भाई आदमी ही आदमीके काम आता है, हो सके तो कुछ सहायता कर देना, ऐसा कहकर चला आया। ५८१ .

Loading...

Page Navigation
1 ... 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716