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जीवनके खण्डहर श्री अम्बिकाप्रसाद वर्मा "दिव्य,' एम. ए.
जाड़ेकी ऋतु थी. संध्याका समय । में अपने प्रांगन में बैठा धूप ले रहा था। इसी समय एक लड़की सिरपर टोकरी रक्खे आयी और बोली- 'बेर ले लो।' लड़की शायद पन्द्रह सोलह वर्षकी होगी, परन्तु यौवनके उसमें कोई चिन्ह नहीं दीख पड़ते थे। चिपटी नाक,अन्दरको घुसी हुई छोटी छोटी आंखें,मोटे मोटे ओंठ, सांवला रंग, ठिनगा कद, देखते ही ज्ञात होता था कि वह भाग्यकी ठुकरायी हुई है।
जब कुछ काम नहीं होता तो कुछ खाना ही अच्छा मालूम होता है, यह भी एक मन बहलाव है । बोला-"देखू"।
लड़की झिझकती तथा डरती हुई सी बेरोंकी खुली हुई टोकरी सामने रख प्रांगन में एक तरफ स्वाभाविक सुशीलतासे बैठ गयी, बैर बड़े बड़े और गदराए हुए थे। मेरी भूखी आंखोंने उनका स्वागत किया, परन्तु मेरी विना अाज्ञाके ही मेरी लड़की उन्हें खरीदनेको दौड़ी, श्राज्ञाकी क्या जरूरत थी, यह उसका रोजका काम था। मैंने उसके खरीदे हुए बैरों में से एक बैर उठाया और चक्खा, बैर मीठा था, अतः मुझे लड़कीके विषय में कुछ जिज्ञासा हुई ।
तू कहां की है ? "महराजपुराकी' लड़कीने दयनीय सी शक्ल बनाकर कहा । "तेरे और कौन है ?" मैं फिर योंही बेमतलब पूछा बैठा। “बूढा बाप और एक छोटा भाई"। "क्यों, मां नहीं है? "नहीं, वह तो मर गयी," ऐसा कहते लडकी की अांखों में आंसू आ गये। "कोन, ठाकुर है ?" "अहीर ।"
"तो कुछ दूध मठठा घरे नहीं होता?" "कुछ नहीं, मांके मरजाने से सब घर बार बिगड़ गया । बाप बुड्ढा है, अांखोंसे भी कम दिखता है,
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