________________
बुन्देली लोक-कवि ईसुरी
प्रेमीके दर्शनों की प्यासी प्रेमिका कहती है कि यदि मेरा प्रेमी छल्ला बनकर मेरी उंगुलियोंमें रहता होता तो कितना सुविधाप्रद होता। जब मैं मुंह पोंछती तो वे गालोंसे सहज ही में लग जाते, जब मैं आंखोंमें काजल देती तो उनके अपने आप दर्शन हो जाते, मैं जब जब घंघट संभालती तब तब वे सन्मुख उपस्थित होते और इस प्रकार उनके लिए तरसना न पड़ता
जो कउं छैल छला हो जाते, परे उंगरियन राते। मौं पोंछत गालन कौं लगते, कजरा देत दिखाते । धरी घरी चूंघट खोलत में, नजर सामने राते। मैं चाहत ती लख में विदते, हात जाई कौं जाते । 'ईसुर' दूर दरस के लाने, ऐसे काये ललाते ।
इधर प्रेमी भी कह रहा है कि फिरते फिरते मेरे पैरोंमें छाले पड़ गये हैं फिर भी मैं सङ्ग छोड़ने वाला नहीं । कंधेपर झोला डालकर घर घर अलख जगाता हूं, गलियों की खाक छान रहा हूं, रोड़ा बनकर इधर उधर भटक रहा हूं, सूखकर डोरी की तरह हो गया हूं, हाड़ घुन हो चुके हैं फिर भी तुम्हारे कृपा पात्र न बन सका। दो गीत देखिए
हड़रा घुन हो गये हमारे, सोसन रजउ तुमारे। दौरी देह दूबरी हो गई, कर के देख उगारे। गोरे आंग हते सब जानत, लगन लगे अब कारे । ना रये मांस रकत के बंदा, निकरत नई निकारे । इतनउ पै हम रजउ कौं 'ईसुर', बनें रात कुपियारे ।
फिरतन परे पगन में फीरा, संग न छोड़ों तोरा । घर घर अलख जगाउत जाकें, टंगी कंदा पै झोरा । मारौ मारौ इत उत जावै, गलियन कैसो रोरा । नई रौ मास रकत देही में, भये सूक के डोरा ।
कसकत नई 'ईसुरी' तनकउ, निठुर यार है मोरा । प्रेमिका की तलाशमें दर्शनोंकी दक्षिणा मांगनेवालेके उद्गार देखिए
जो कोउ फिरत प्रीतिके मारे, संसारी सों न्यारे । खात पियत ना कैसउं, रहते, वेस-विलास विसारे।
७२