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स्व० बा० कृष्णबलदेवजी वर्मा प्रमाण माने जाते थे । उनमें क्षुद्र प्रान्तीयता न थी । उनका हृदय बड़ा ही ऊंचा और विशाल था । अपने एक दूसरे पत्र में आपने लिखा था कि
"यह जानकर मुझे और भी आनन्द हुआ है कि 'सुधा' ओरछा अङ्क प्रकाशित करेगी । मैं उसमें सहयोग देनेके लिए पूर्णतया प्रस्तुत हूं । साहित्य के देवस्वरूप श्री केशवदास जी मेरे हृदयाराध्य उपास्यदेव हैं । फिर यह कहां सम्भव है कि जहां उनका अथवा ओरछा राज्यका गुणगान होने को हो वहां मैं कुछ भी त्रुटि करूं ? पर कहना इतना ही है कि एक सप्ताह का समय जो लेखके लिए आप मुझे देते हैं, वह बहुत ही अपर्याप्त है, कारण यह है, इस समय मैं बहुत व्यग्र हूं, यह सप्ताह क्या दो सप्ताह तक मैं ऐसा फंसा हूं कि दम मारने का अवकाश नहीं, क्योंकि ता० २१ नवम्बर को मैं प्रयाग आ रहा हूं । ऐकेडेमी की ओरसे पत्रिका पहली जनवरी को प्रकाशित होने वाली है। उसके एडिटोरियल बोर्ड की मीटिंग २३ नवम्बर को है । पत्रिकाके एडिटोरियल बोर्ड का मैं आनरेरी मेम्बर हूं । पत्रिकाके लिए एक बहुत विस्तृत लेख भारतवर्ष के अन्तिम सम्राट महाराज समुद्रगुप्तके सम्बन्ध में खोज करने और स्टडी करने में मुझे दो साल लग गये । प्रयाग, कौशाम्बी, दिल्ली, एरण, गया, आदिके स्तम्भों परके लेखों को पढ़ना पड़ा, कनिंघम की आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट की स्टडीज करनी पड़ी। गुप्तकालीन मुद्राओं व मूर्तियों को खोज कर उनसे ऐतिहासिक रहस्य उद्घाटन करने पड़े । श्रत्र वह लेख पूर्ण करके भेजा है । वीर-विलास की भूमिका तब तक लिखकर तैयार हो जावेगी । उसे भी प्रकाशनार्थ भेज रहा हूं। दूसरे २५ दिसम्बर को काशीमें ऑल एशियाटिक एज्यूकेशन कान्फ्रेन्स होने वाली है, उसका भी मैं मेम्बर हूं, उसके लिए भी लेख प्रस्तुत करना है, जो भारतवर्ष की प्राचीन युनिवर्सिटियों और शिक्षा पद्धति पर होगा, साथ ही २६ ता० को काशी नागरी प्रचारिणी सभा के साहित्य परिषदका अधिवेशन है, जिसके लिये सभापति श्रीयुत रावबहादुर माधवराव किये हैं । उस परिषद के लिए बन्धुवर बाबू श्यामसुन्दरदास जी रायसाहबने बुन्देलखण्ड के साहित्यपर एक लेख पढ़ने की आज्ञा की है जिसकी मैं स्वीकृति दे चुका हूँ, और जिसे तयार करने का आज लग्गा लगाऊंगा। साथ ही पटने में ओरिएण्टल कानफ्रेंस है उसमें भी जाना पड़ेगा और उसके लिए भी कुछ मसाला इकट्टा करना होगा। अतः आप बाबू दुलारेलाल जी से यह कहिये कि वे कृपा करके पन्द्रह-बीस पृष्ठ की जगह मेरे लेखके लिए रिजर्व रक्खें ।"
वर्मा जी बड़े ही चरित्रवान थे । आपकी गृहणीका स्वर्गवास आपकी तीस वर्ष ही की अवस्था में हो गया था किन्तु आपने दूसरा विवाह नहीं किया । अपने बृहद् परिवारकी सुव्यवस्था आप जिस योग्यता से करते थे वह देखते ही बनता था। मित्रों के आदर सत्कार करने में भी आप बड़े ही विनम्र और कुशल थे। मित्रोंका तांता आपके यहां लगा ही रहता था वर्मा जी में यह खूबी थी कि प्रत्येक समुदाय में घुल-मिलकर बातें करके मनोरंजन कर लेते थे । बच्चों में बच्चे और बड़े बूढ़ोंमें बुड्ढे ।
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