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स्व. बा० कृष्णबलदेवजी वर्मा श्री गौरीशङ्कर द्विवेदी 'शङ्कर'
___सन् १६२४ की दीपावली थी । स्व० रायसाहब पं० गोपालदास जी उरई लौटने के लिए मोटर की प्रतीक्षा कर रहे थे, कालपी डाकघरके चबूतरेपर हम लोग बैटे हुए थे; बाजारसे आता हुआ इक्का रुका और उस पर से एक नाटे कद के भद्र पुरुषने हंसते हुए आकर हाथ जोड़ कर रायसाहब से प्रणाम और मुझसे भी रामराम की। कुरसी पर जब वह बैठ गये तब रायसाहबने मेरी ओर संकेत करके उन सजन से कहा कि आप जानते हैं न, ये भी साहित्यक और कवि हैं और कवीन्द्र केशव के वंशधरों के जामाता हैं । अन्तिम वाक्यने उन सजनपर जादू जैसा असर किया । वे बड़ी शीघ्रता से उठकर मुझ से गले मिले और रोकने पर भी पैर छू ही लिए । पहले इसके कि मैं कुछ कह सकू उन्होंने कहना प्रारम्भ कर दिया कि केवल कवीन्द्र केशव हो को मैं अपना कविता-गुरू और हिन्दी भाषाका का प्रथम श्राचार्य मानता हूं। यह बड़े ही सौभाग्यका दिन है जो आप से अनायास ही भेट हो गयी, क्या कवीन्द्र केशवके वंशधर इसी बुन्देलखंड में अब भी हैं ! इत्यादि बड़ी देर तक बातें होती रहीं । रायसाहब उरई चले भी गये किन्तु उनकी बातों का तांता समाप्त नहीं हो रहा था । यह उनकी हमेशा की प्रकृति थी-कितने ही आवश्यक कार्य से कहीं जा रहे हों किसी विषय विशेष पर चर्चा उठ खड़ी हो तो उस आवश्यक कार्यको भूल जायंगे और अपने विषयका तब तक निरन्तर प्रतिपादन करेंगे जब तक आप भली प्रकार सन्तुष्ट न हो जाय । स्व. बा. कृष्णबलदेव जी वर्मासे यह मेरी प्रथम भेंट थी, फिर तो मैं उनका अधिक कृपापात्र, उनके परिवार का एक सदस्य सा और कालपीवालों के लिए उन जैसा ही एक नागरिक बन गया था। वहां के कितने ही संस्मरण हैं किन्तु उनकी चर्चा यहां न करूंगा । स्व० वर्मा जी के सम्बन्ध में ही संक्षेपमें लिखता हूं।
स्व० बा० कृष्णबलदेव जी वर्माका जन्म सं० १६२७ वि० में वेदव्यास जी की जन्मभूमि कालपी में हुआ था । आपके पूज्य पिताजी का शुभनाम लाला कन्हयीप्रसाद जी खत्री था, वर्मा जी के पूर्वज प्रायः दो सौ वर्ष पूर्व पंजाबसे आकर कालपीमें बसे थे, कालपी में उन्होंने सराफी, हुण्डी, आदि के व्यापार में अच्छी सम्पत्ति एकत्रित कर ली थी। उन्हीं दिनों वे ब्रिटिश सरकार तथा मध्यभारत की कितनी ही रियासतोंके बैंकर भी हो गये थे।
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