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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
अकाल में ही काल कवलित हो जाने तथा अर्थाभावके कारण एकमात्र एवं प्राणप्रिय पुत्रको उच्च शिक्षासे वंचित रखा। अतः तन-मन-धन और धर्म लगाकर भी जिस व्यक्तिने विद्यालय बनाया, बढ़ाया और पर्याप्त कोष छोड़कर निकट भविष्य में गत्यवरोधसे भी बचाया, उसका तैलचित्र भी विद्यालय स्वीकार न कर सके यह कितनी कृतघ्नताकी बात है !
जैसाकि पहिले लिखा जा चुका है, वाजपेगीजी ने विद्यालयके अन्तर्गत आयुर्वेदीय-रसायन शाला को स्थापना भी करवायी थी, जहां पर सभी प्रकारके रस, भस्म, आसव, अरिष्ट, आदि शास्त्रीय विधिसे बनाये जाते हैं । आयुर्वेदाचार्य पं० जगन्नाथजी पाण्डेय इस विभागके प्रमुख हैं। वाजपेयीजीको जब सन्निपातने ग्रस लिया तो बस्तीके प्रायः सभी वैद्योंकी सम्मति हुई कि अमुक रस दिया जाय और वह रसायन शालासे ही मंगाया जाय क्योंकि वह शुद्ध शास्त्रीय विधिसे सिद्ध है। मैं उस समय वहीं बैठा था। मैंने सुना, शिवाधरजी बोले, और जहांसे बताइये मैं मगानेको तैयार हू चाहे जितना मूल्य लगे, परन्तु अपनी रसायन शालाकी कोई भी औषधि न दीजिये, पिताजीकी यह आज्ञा है। इस पर भी जब एक वैद्यने कहा कि वह रस क्या है रामबाण ही समझिये और फिर पैसातो दे रहे हैं । शिवाधरजी रोकर कहने लगे अंतिम समय में उनका नियम न तोड़िये । जीवन भर उन्होंने विद्यालयकी कोई वस्तु ग्रहण नहीं की,और बीमार होनेके पूर्व ही उहोंने मुझसे कहा था कि अपनी रसायनशालाकी औषधि मेरे लिए न मंगाना । आखिर ऐहिक लीला समाप्त कर दी पर अपनी प्रतीज्ञासे न टले । अपने 'यशःशरीरेणा' वे आज भी विद्यमान हैं पर विद्यालयके भग्नावशेषोंके श्रांसू पोछने वाला आज कोई नहीं। यदि यही क्रम रहा तो वह दिन दर नहीं जब विद्यालय में फिर यथापूर्व १५ विद्यार्थी ही रह जायगे और धीरे धीरे वे भी खिसक जावेंगे।
हमारे देशमें संस्कृत प्रेमियोंकी कमी नहीं । पू० महात्मा गांधीजी तो प्रत्येक भारतीयके लिए संस्कृत अध्ययन आवश्यक मानते थे और देशरत्न राजेन्द्रबाबूने अपने अत्यन्त व्यस्त जीवनमें भी संस्कृत साहित्य पर एक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण पुस्तक लिखा है । साधन सम्पन्न वैश्यसमाज में भी संस्कृत के प्रति श्रद्धा-भक्ति विद्यमान है और सुना है कि संयुक्त प्रान्तके शिक्षामंत्री संस्कृतप्रेमी ही नहीं स्वयं अच्छे संस्कृतज्ञ भी हैं ।
और सर्वोपरि बात यह है कि स्वर्गीय वाजपेयीजी की तपस्यासे जिन्होंने लाभ उठाया था ऐसे पचासों विद्यार्थी यत्र तत्र विद्यमान हैं, इन सबके होते हुए भी यह संस्कृत विद्यालय, देववाणीका यह आदभुत उपवन उजड़ जाय, इससे अधिक दर्भाग्यकी बात और क्या हो सकती है।
पर हम निराशावादी नहीं। अपने प्रान्तमें संस्कृत विश्वविद्यालयकी स्थापनाकी चर्चा चल रही है और बंगालके गवर्नर माननीय कैलाशनाथजी काटजू तो संस्कृतको राष्ट्रभाषाके रुपमें देखना चाहते है। हमें आशा है कि हामरे विद्यालयकी ओर भी इन महानुभावोंका ध्यान जायगा और वाजपेयी जी के उस उपवनमें "अइहै बहुरि बसन्त ऋतु, इन डारन वे फूल।"