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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
आचार्य के छात्र औरैया संस्कृत विद्यालय में आये । व्याकरण, साहित्य, वेदान्त, मीमांसा, धर्मशास्त्र, दर्शन, पुराण और इतिहास का समस्त बाङ्मय इनको हस्तामलकवत् था । इन सब शास्त्रोंके विद्यार्थियों को अंग्रेजी अनिवार्य रुप से पढ़नी थी । इसी समय विद्यालय अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंच चुका था । काशी, करवी और खुर्जा को छोड़कर उतना बड़ा संस्कृत विद्यालय उत्तर भारत में सम्भवतः अन्यत्र कहीं न था । विद्यालय बस्ती से दूर होने के कारण तपोवन बन रहा था । अग्निहोत्रों के धूमपुञ्जसे पिंगपादप पल्लव कुलपति कण्व्के तपःपूत श्राश्रम का स्मरण कराये विना न रहते । ब्राह्ममुहूत में कहीं वटुवृन्द सन्ध्योपासन कर रहे हैं, कोई स्वाध्याय में संलग्न है तो कोई आसन बिछा रहे हैं; एक व्यायाम निरत है तो दूसरे बिल्वपत्र चयन कर रहे हैं। इधर मृगशिशु पृथ्वी सूंघता फिरता है उधर देव मंत्रोच्चारण और देव मठमें घण्टा ध्वनियों के बीच मयूर कुहुक उठता है । इतना सब कुछ होने पर भी श्री वाजपेयी जी प्रायः यही कहा करते थे कि अभी तो हमारे विद्यालय का शैशव ही है । इतने अल्पकाल में इतनी उन्नति के साथ प्रतिवर्ष नवीन विषयोंके उद्घाटन और प्रतिमास नयी नयी योजनाएं देखकर लोग न जाने किस काल्पनिक वाङ्मय लोकमें विचरण करने लगे थे कि ' हा हन्त हन्त नलिनीं गज उनहार' वाजपेयी जी ज्वरग्रस्त हुए । हेमन्त ऋतु थी, शनैः शनैः शक्तिपाल ने उनकी इहलीला समाप्त कर दी ।
उजड़ा हुआ उपवन
वस्तुतः वाजपेयी जी तो मरकर भी अमर बन गये पर उनका उपवन वह महाविद्यालय उजड़ गया । उनके दाह संस्कार से लौटकर मैंने देखा तो विद्यालय के अणु अणुसे करुणा वह रही थी, बाजपेयी जी के वियोग में विद्यालय भी विभाविहिन हो गया । उनके अभाव में समिति के शेष सदस्योंकी शक्ति परिमित रह गयी । एक वर्ष ज्यों त्यों करके टल सका कि पटटू आचार्यको असभ्यता पूर्वक अपमानित कर निकाल दिया गया | कुलपतिके निधन के पश्चात् उस विद्यालय के धन और धर्म वही आचार्य थे यह सर्वविदित था । इन महानुभावमें एक त्रुटि अवश्य थी कि वह कलिकालानुकूल न बन सके और न वे अपने प्रभुओं को यज्ञोपवीत और फलोपहार दे सके । वाजपेयी जी के बाद यहां गुणों की कोई उपर्युक्त कसौटी न रही थी, अतः अनेक शास्त्र निष्णात डबराल जैसे आचार्य के सभी गुण दुर्गुण बन गये ।
इसके बाद यह प्रस्ताव आया कि स्वर्गीय वाजपेयी जी का एक तैलचित्र विद्यालय में लटकाया जाय, जिससे उनकी पावन प्रतिमा का प्रतिबिम्ब निरन्तर प्रत्यक्ष रहे । परन्तु कुछ गण्य मान्य व्यक्तियों को यह प्रस्ताव भी न जंचा । जिस देशमें नृशंश शासकों की पुरुष प्रमाण- प्रतिमाएं प्रचुर धनराशि व्यय कर चतुष्पथों पर आरोपित होती रही हों वहां दीन दुखियों के उद्धारक और देववाणी के प्रचारक के तैल चित्रके टांगे जाने में भी बाधा ! कृतघ्नता की पराकाष्ठा हो गयी । वाजपेयी जी के निधन से केवल विद्यालयको ही
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