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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
दलितों और अशक्तों में श्रासक्ति एवं समाज सेवामें अनुरक्ति, आदि भव्य भाव बाल्यकाल से ही परिलक्षित होते थे । आप अपने सदगुणोंको छिपानेका प्रयत्न निरन्तर करते रहते थे । मित शब्द मानों आपके भाषण, भोजन और व्ययका विशेषण बननेके लिए ही निर्मित हुआ था । संयम तो आजन्म अभ्यस्त था । कार्यकारिणी क्षमता पूर्व थी । छरहरी गौरी गात्रयष्टि, अलिकाल कुन्तल, विशाल भाल-भूषित त्रिपुण्ड्र, लम्बे श्रवणयुग्म, उन्नत नासिका, तनु और अरुण श्रोष्ठों पर चटक काली मूंछ, कलित कल्हार सा वदन, मनोहर ग्रीवा, प्रलम्ब बाहु, प्रशस्त वक्षःस्थल, निराडम्बर वेश, हृदय निरावेश, दृष्टि प्रायः सनि त्र, शुद्ध श्वेत खद्दरकी धोती और साफा, यहां तक कि चरणत्राण तक श्वेत, यही उनकी बेष भूषा थी, यही थे औरैया गुरुकुलके कुलपति पं० शिवदर्शनलाल वाजपेयी । कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था । जन्मभूमि कानपुर के समीप थी परन्तु युवावस्था में आपने औरैया में पदापर्ण किया जहां कि आपका विवाह हुआ था । श्वसुरालय में एक मात्र दुहिता के साथ साथ सम्पत्ति के भी पति बने और वहां रहने लगे, अब आपकी वय चौवीसके निकट थी, उन्ही दिनों पं० छोटेलाल दद्दू और पं० केशवप्रसाद जी शुक्लने अपने प्रान्त में देववाणी संस्कृतका उत्तरोत्तर ह्रास होते देखा, विचारने लगे क्या किया जाय ?
संस्कृत प्रचारका शुभ विचार उनके परिष्कृत मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ । उद्घाटन भी हो गया बड़े उत्साह और उत्सव के साथ विद्यालयका ; पर 'यथारम्भस्तथासमाप्तिः ' के अनुसार जितने शीघ्र उत्साह जागृत हुआ पर्याप्त सहयोग के अभाव में उतने ही शीघ्र वह सुन होने लगा । उस समय उनकी सहयोगसतृष्ण दृष्टि जैसे ही वाजपेयी जी पर पड़ी कि 'मानहु सूखत शालि खेत पर घन घहराने' फिर क्या था ! वाजपेयीजी जुट पड़े जी जानसे । उनका तो जन्म ही जनता जनार्दनकी सेवा के लिए हुआ था। उनकी निष्ठा और निश्छल सेवाप्रवृत्ति आदिको देखकर सभाने संस्थाका सूत्र उन्हीके सबल करोंमें समर्पित कर दिया । वाजपेयीजी ने देखा संस्कृत विद्यालयके लिए कोई भवन नहीं है, आपने शीघ्र ही अपना बाग जिसमें एक शिव मठ और वृक्षथे विद्यालयको दान कर दिया । भूमितो हो गयी पर भवनका प्रश्न जटिल था । वर्तमान की आवश्यकता कोई ऐसी न थी जिसके लिए उन्हें विशेष चिन्तित होना पड़ता । एक कक्ष में काम चल सकता जो पांचसौ रुपये में बन जाता क्योंकि उस समय छात्रोंकी संख्या पन्द्रह या बीस थी परन्तु वे दूरदर्शी थे। अपनी संस्थाको महाविद्यालयका रूप देनेकी उनकी अभिलाषा थी। इस उग्र आकांक्षाने उस तरुण तपस्वीको पलभर भी बैठने नहीं दिया । उनके व्यक्तित्वका प्रभाव ही ऐसा था कि जिसके समक्ष कृपण भी उदार बन जाते थे | परिणामतः बाग के प्रांगणकी छात्रावाससे घेर दिया और मध्य में अनेकों विशाल कक्ष बनवाये । उनका हृदय सब कुछ सह सकता था पर श्रार्तनाद नहीं सुन सकता था । रोगियोंकी दरिद्रता और डाक्टरोंकी हृदयहीनता से क्षुब्ध होकर उन्होंने स्वास्थ्य प्रचार करनेका संकल्प कर लिया । अतः एक विशाल रसायनशालाका निर्माण कराया । एक पीयूषपाणि चिकित्सक चूड़ामणिको अध्यापक नियुक्त किया
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