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मातृभूमिके चरणों में विन्ध्यप्रदेशका दान
भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विन्ध्य प्रदेश क्या भेंट मातृभूमिके चरणों में अर्पित कर सकता है उसका संक्षिप्त ब्यौरा हमने दे दिया है।
हमारा कर्त्तव्य--
हम लोगों का जो इस प्रान्तके अन्न जलसे पल रहे हैं-कर्त्तव्य है कि हम इस जनपदके नमक को अदा करें। यदि कहीं भी इस प्रान्तका कोई नवयुवक शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, व्यायाम (खेलकूद ), उद्योग-धंधे, राजनीति अथवा समाजसुधार, इत्यादिके क्षेत्रोंमें हमारी सहायता या प्रोत्साहन की आशा कर रहा है तो अपनी सेवाएं नम्रतापूर्वक अर्पित करना हमारा कर्तव्य है।
यह भूमिखण्ड प्रतीक्षा कर रहा है सरस्वतीके उन उदार उपासकों की जो मिल बांट कर अपनी सुविधाओंको भोगने के सिद्धान्तमें विश्वास रखते हों, वह इन्तजार कर रहा है उन साधन-सम्पन्न व्यक्तियोंको जो उद्योग-धंधे खोलकर चार दाने यहां को गरीब जनताके पेटमें भी डालें, वह बाट जोह रहा है उन बड़े भाइयोंकी, जो छुटभाइयों को प्रोत्साहन तथा प्रेरणा देने में अपना गौरव समझे। हां, इस जनपद की इस उपेक्षित भूमिको जरूरत है ऐसे आदर्शवादी नेताओंकी, जो अपना तन मन धन इस प्रांतकी सेवामें अर्पित करने के लिए सर्वदा उद्यत हों।
लोगों का यह आक्षेप है कि हमारे कार्यकर्ताओंका बहुधन्धीपन अथवा उनकी संकीर्ण मनोवृत्ति इस प्रान्तकी उन्नतिमें सबसे बड़ी बाधा रही है, पर हमारी समझमें सर्वोत्तम तरीका यही है कि हम किसी पर आक्षेप न करें जिससे हमें जो भी सहायता मिल सके लें और आगे बढ़ें। जो साधन-सम्पन्न होते हुए भी इस प्रान्तकी सेवा करने के लिए कुछ भी नहीं करते उनसे अधिक करुणाका पात्र और कौन होगा? और दयनीय स्थिति उनकी भी है जो लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंको एक साथ खुश रखने के असंभव प्रयत्नमें लगे हुए हैं।
जिस प्रान्तके अधिकांश निवासी शिक्षाविहीन, साधनहीन और जीवन की साधारण आवश्यकताअोंके लिए पराधीन हों, उसकी सेवा करना एक महान यज्ञ है। सौभाग्यशाली हैं वे जो यथाशक्ति इस यज्ञमें सहायक हैं।
भगवान्ने गीतामें कहा है :--
"यज्ञशिष्ठाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः
भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्" अर्थात् यज्ञसे बचे अन्नको खाने वाले श्रेष्ट पुरुष सब पापोंसे छूटते हैं और जो केवल अपने शरीरके पोषणके लिए ही भोजन बनाते हैं वे पापको ही खाते हैं । ६६
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