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बुंदेलखंड में नौ वर्ष
बाकी दिन प्राणहीन सी चारपायी पर पड़ी रहती है, मैं पिछले नौ वर्षों से यही क्रम देखता आ रहा हूं, दुनिया समूची मैंने नहीं देखी, किन्तु एक मात्र इसी स्त्री में मैंने तड़पते हुए नारीत्व को बार-बार मरते जीते, फूलते मुरझाते देखा है, मेरे सामने बारम्बार एक विराट आश्चर्य मूर्तिमान बन कर खड़ा हो जाता है कि दुनियां वालों की अांखें क्यों अब तक अपने इस वीभत्स रुप को नहीं देख सकीं।
इन चित्रोंके द्वारा मैं यह चाहता हूं कि मेरे हृदय पटल पर अंकित बुन्देलखण्ड की रुपरेखाएं उभर उठे, मैं अपने मुहल्ले को टीकमगढ़ का, टीकमगढ़ को बुन्देलखंडका, और बुन्देलखंड को भारतके इस महादेश का सूक्ष्मचित्र मानता हूं। मैं व्यक्ति को समूची मनुष्यता और पेड़ की छोटी सी टहनी को संसार भरके वृक्षों का चित्र मानता हूं। यह केवल मेरे ही मानने की बात है। दूसरेसे मनवाने की महत्त्वाकांक्षा मुझ में नहीं । बुन्देल जनकी तीसरी झांकी--
अपनी तीसरी अनुभूतिके चित्रसे मैं समझता हूं कि अब तक जो रेखाएं मैंने खींची है, उनमें छाया और प्रकाश का समावेश हो जायगा, इसे लिखने के तीन चार महिने पहिले की बात है, बुन्देलखंड की जनता का एक नेता मार डाला गया, नेताओं पर अपनी श्रद्धा या प्रेमके वशीभूत होकर यह लिख रहा होऊं सो बात नहीं है , नारायणदास खरे मेरा मित्र भी था; इसी नाते कई बार मैं उसके इतने निकट भी पहुंच सका था कि उसके हृदय की पहिचान कर सकू। पिछले नौ वर्षों में एक मात्र यही एक व्यक्ति मुझे मिला, जो जान गया था कि उसके जनपद की पीड़ा कहां पर है, संसारके दूसरे देशों की भांति नेता कहानेवाले व्यक्तियों की कमी यहाँ भी नहीं है। बरसाती शिलीन्ध्री की भांति ये लोग अनायास उत्पन्न हो जाते हैं और अपने चारों ओर की पृथ्वी को एक कुरुप दर्शन प्रदान करते हैं । नारायणदास जीता रहता
और अपने जनपद की पीड़ा का इलाज कर सकता या नहीं, यह दूसरी बात है, मैं तो प्रकृत नेता को कुशल वैद्य मानता हूं। यदि डाक्टर जानते कि रोगी का निदान क्या है, तो चिकित्सामें कठिनता नहीं होती।
अब अभागे प्रयत्न कर रहे हैं कि उसके बलिदानके महत्त्व की उपेक्षा की जाय, जो उनका मसीहा बन कर आया था, सम्भव है कि समय का सर्वग्रासी चक्र उनके प्रयत्न को सार्थक कर दे. आकाशके एक कोने में भभक कर टूट जाने वाला नक्षत्र था नारायणदास । अनन्त नीलिमामें वह डूब गया है। मैं व्यक्तिवादी हूं इसलिए, मैंने अपने बुन्देलखंडके नववर्षीय जीवनमें जो कुछ निधियां प्राप्त की हैं. उनमें एक नारायणदास का मृत्यु सन्देश है । वह वस्तु मेरी है क्योंकि जैसा मैंने चाहा उसे समझा, उससे मैंने सीखा कि संसारमें दुःख है किन्तु सर्वशक्तिमान भी है, दुःख ही मरमात्मा की अनुभूति है; सुख त्याज्य है किन्तु ग्राह्य नहीं । दुःख हमारा है और सुख पराया। यहांपर उसके संस्मरणके द्वारा मैं अपने इस विश्वासको और भी दृढ़ कर देना चाहता हूं कि मनुष्य का समाज आज भले ही, रुग्ण हो, भले ही उसका अंगप्रत्यंग विषमताके कोढ़से गल-गल कर कट रहा हो; किन्तु मनुष्यता अविनाशी है, सत्य है, सुन्दर है। प्रकृति कुरूपता को
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