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वर्णी- अभिनन्दन-ग्रन्थ
कहा जाता है कि इनके पूर्वपुरुष चन्द्रब्रह्मका जन्म खजुराहा ही में हुआ था। चन्द्रब्रह्मकी मां काशीसे आयी थी और उन्होंने कर्णवतो अर्थात् केन नदीके किनारे जो कि खजुराहासे कुछ ही दूरसे निकली है, तप किया था। तपके फलस्वरूप इनके चन्द्रब्रह्मका जन्म हुआ । जब चन्द्रब्रह्म सोलह वर्ष के हुए तो इनकी मां ने भांडवयज्ञ करवाया। इस यज्ञके लिये ८४ वेदियां बनायी गयी थीं और कुएं में भरकर म्हटके द्वारा वैदियों तक निरंतर धी पहुंचाया गया । घी पहुंचाने के लिए पत्थरकी जो परनालियां बनायी गयी थीं, वे अब भी खजुराहामें पड़ी हैं ।
इन वेदियों पर बादमें ८४ विशालकाय मन्दिर बनवाये गये । इन मन्दिरों से कुछ अब भी खड़े हैं । खजुराहाके खंडहरों में यही विशेष हैं और इनके कारण ही खजुराहा आज भी सुप्रख्यात है और हमारे लिए दर्शन तथा अध्ययनको चीज बना हुआ है।
इन मन्दिरोंको खजुराहाका बोलता हुआ इतिहास कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। पत्थरसे इनके समयके रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज नैतिक तथा धार्मिक जीवन, सभीके उभरे हुए चित्र दूर ही से बोलते हुए से दिखाई पड़ते थे। ये मन्दिर कितने विशाल कितने भव्य तथा कलापूर्ण है कहते नहीं बनता। इनके विषयमें स्वयं पुरातत्त्व विभागकी रिपोर्ट में लिखा है। In beauty of out-line and richness of carving the temples of Khajuraha are unsurpassed by any kindred group of monument in India.
खेद है कि चौरासी मन्दिरोंमेंसे केवल तीस पैंतीस मन्दिर ही शेष रह गये हैं । अन्य या तो कालकी गतिसे स्वयं ही या मुसलमान शासकोंके प्रहारोंसे धराशायी हो गये । जब खजुराहाके ये खंडहर हमको आश्चर्यमें डालते हैं, तब खजुराहा जब अपनी पूर्ण यौवनावस्थामें रहा होगा, उस समय उसे देखकर हमारे क्या विचार होते, इसको हम कल्पना भी नहीं कर सकते। ये मन्दिर भुवनेश्वरके सुप्रसिद्ध मन्दिरों की इण्डोआर्यन पद्धति पर बने हैं और एक एक मन्दिरमें छोटी बड़ी इतनी अधिक मूर्तियां हैं कि उनका गिनना भी कठिन है । ये सभी मन्दिर प्राकृति और बनावटमें प्रायः एक से ही हैं और एक ही मतके प्रतीकसे ज्ञात होते हैं। कई मन्दिर इनमें से पंचायतन शैलीके हैं और पूर्णतया वैदिक शिल्प शास्त्रके अनुकूल हैं ।
समस्त मन्दिर तीन समूहोंमें विभक्त किये जा सकते हैं-पश्चिमी समूह, पूर्वी समूह तथा दक्षिणी समूह । पश्चिमी समूह विशेष दर्शनीय है । इनमें नीचे लिखे मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं । पश्चिमके मन्दिर
चौसठ योगनियोंका मन्दिर-यह मन्दिर शिवसागर नामकी झील के उत्तर पूर्व एक ऊंचे टीले पर स्थित है । मन्दिर तो धराशायी हो चुका है, अब उसका भग्नावशेष मात्र है। इसमें कहा जाता है, भगवति चण्डिका देवीकी तथा उनकी दासी ६४ योगनियोंकी विशाल मूर्तियां पृथक-पृथक खानोंमें स्थापित थीं।
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