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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
शृंगार के द्वारा प्राप्त किसी नैसर्गिक अानन्दकी अोर उन्मुख हैं । उनकी मुद्राओं तथा भावभंगियोंमें कर्कषता, कठोरता तथा क्रोधको कहीं भी स्थान नहीं है । स्त्रियोचित कोमल लज्जा अवश्य उनके मुखों पर दिखती है । और यही खजुराहाके कारीगरके हृदयमें स्त्रीत्वका सम्मान है। उनकी नासिका, ठुड्डी तथा कपाल इत्यादि भी किसी विशेष अादर्शके अनुकूल बनाये गये हैं । उरोज शरीरमें इतने प्रमुख और उन्नत तथा गुरुतर हैं कि उनका भार सम्हालना भी स्त्रियोंको कठिन सा प्रतीत होता ज्ञात हो रहा है। इस भावके अभिव्यंजनमें कारीगरने जो कौशल दिखलाया है, वह देखते ही बनता है। उसके सौन्दर्यकी कल्पना प्राचीन होने पर भी श्राज अर्वाचीन सी ज्ञात होती है।
___खजुराहाकी रमणियोंका शृगार भी उनके सौन्दर्य के अनुरूप है, कल्पित नहीं । उसके कुछ परिवर्तित रूप आज भी बुन्देलखंडमें प्रचलित हैं, परन्तु उस समयकी सी शृंगारप्रियता स्त्री समाजमें अब देखनेको नहीं मिलती । उस समय एक एक अंगके अनेक अनेक अलंकार मूर्तियोंके अंगोंपर दिखलायी पड़ते हैं । वेणी बांधनेके ही कितने ढंग उस समय प्रचलित थे, देखने योग्य हैं । मालूम नहीं, आज वे ढंग क्यों लुप्त हो गये और स्त्रियां अपनी वेष भूषाकी श्रोरसे क्यों इतनी उदासीन हो गयौं ! वेणी बन्धनमें भी कितनी कला हो सकती है, यह खजुराहासे सीखना चाहिए । सिरके प्रत्येक अलंकारका तो अाज नाम भी ढुंढ निकालना कठिन है । तब भी झूला, शीशफूल, बीज, दावनी, इत्यादि जो आज भी बुंदेलखंडमें प्रचलित हैं, पहचाने जा सकते हैं । मस्तकपर बिंदी देनेकी सम्भवतः उस समय प्रथा ही नहीं थी। बिन्दीका चिह्न किसी भी मूर्ति पर अंकित नहीं मिलता। नाकका भी कोई भूषण दिखलाई नहीं पड़ता । कानोंमें प्रायः एक ही प्रकारका भूषण जिसे ढाल कहते हैं, मिलता है । गले में लल्लरी, मोतियोंकी माला, खंगोरिया. हार, हमेल, तथा और भी कुछ ऐसे गहने देखनेको मिलते हैं जिन्हें पहचान सकना कठिन है । बाजुओं में बजुल्ले, बटुवा, जोसन, टांडे तथा और भी कई गहने दीखपड़ते हैं। कलाइयोंमें वगमुहे, चूड़े कंकड़ तथा दूहरी ही प्रायः मिलती हैं। कटिमें सांकर पहननेकी कुछ विशेष प्रथा रहो है । इसका बनाव अाज कलके बनावसे कुछ विशेष अच्छा दिखायी पड़ता है। उसकी झालरें प्रायः घुटनों तक झूलती नजर आती हैं।
__ पैरोंके प्रति खजुराहाका कारीगर कुछ उदासीन सा प्रतीत होता है । पैरोंमें केवल पैजेने या कड़े सा कोई गहना दिखायी देता है।
खजुराहाकी स्त्रियोंमें वस्त्रोंका व्यवहार बहुत ही परिमित है। कटिके नीचे ही धोती पहननेकी प्रथा थी। सिर पर उसे नहीं अोदा जाता था। उत्तरीयका भी पता नहीं चलता। वक्ष पर कंचुकी अवश्य दृष्टिगोचर होती है । सीना खुला रखनेमें खजुराहाकी स्त्रियां लजाका अनुभव नहीं करती दीखतीं । सिरका ढांकना तो वे जानती ही नहीं थीं।
रुप और शृंगारके साथ खजुराहाकी स्त्रियोंकी भावभंगी तथा अंगप्रत्यंगकी विचित्र मुद्राएं