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गिरिराज विन्ध्याचल
श्री कृष्णकिशोर द्विवेदी |
गिरिराज विन्ध्याचलको पुराणकारोंने समस्त पर्वतोंका मान्य कहा है तथा उसकी गणना सात कुल पर्वतों में की गई है—
मेहेन्द्रो मलयः सद्यः सवितमान् ऋक्षवानपि । विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तेते कुल पर्वताः ।
( महाभारत भी० प० अ० ९ श्लो० ११)
इसमें ऋक्ष विन्ध्य और पारियात्रको साथ रखनेका विशेष कारण है । अपने दोनों सहयोगियोंके साहचर्य में विन्ध्यकी स्थिति इतनी सौन्दर्यमयी बनगयी है कि बाणके शब्दों में उसे "मेखलेव भुवः " कहा जाय तो लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । हिमालयकी गगनचुम्बी उंचाई, शुभ्रहिमानी रहस्यमय वातावरण और विराट् नग्नता, आश्चर्य और आकर्षण उत्पन्न अवश्य करते हैं । पर विन्ध्याचलकी विषमता, कामरुपता, सघन द्रुमलतावेष्टित कंटकाकीर्ण मार्ग, वन्य पशुत्रोंके निनाद से मुखरित गुहाऐं, कलकल निनाद करते स्वच्छ झरने, पर्यटकके मनको एक प्रकारके भय मिश्रित आनंदसे अभिभूत कर देते हैं। विन्ध्यके बनोंका सौन्दर्य बड़ा ही अद्भुत है । बाणने कादम्बरीमें उसका कितना सजीव वर्णन किया है...
"विन्ध्याचल की अटवी पूर्व एवं पश्चिम समुद्रके तटको छूती है, यह मध्यदेशका आभूषण है। पृथ्वीकी मानो मेखला है । उसमें जंगलो हाथियोंके मद जलके सिंचनसे वृक्षों का संबर्धन हुआ है । उसकी चोटियों पर अत्यन्त प्रफुल्लित सफेद फूलों के गुच्छे लग रहे हैं । वे ऊंचाई अधिक होने के कारण तारागणके समान दीख पड़ते हैं । वहां मदमत्त कुरर पक्षी मिर्च के पत्तांको कुतरते हैं, हाथी के बच्चोंकी सूड़ोंसे मसले गये तमाल के पत्तोंकी सुगंध फैल रही है और मदिरा के मद से लाल हुए केरल (मलावार ) की स्त्रियोंके कपोलोंके समान कोमल कांतिवाले पत्तों से वहांकी भूमि अच्छादित है, वे पत्ते भ्रमण करती हुई वन देवियोंके पैरोंके महावर से रंगे हुए से मालूम होते हैं । वह भूमि तोतों से काटे गये अनारों के रससे गीली रहती है तथा कूदते फांदते बंदरोंसे हिलाये गये कोशफल वृक्षों में से गिरे हुए पत्तों और फूलोंके कारण रंग विरंगी दिखायी देती है। दिन रात उड़ती हुई फूलों की रजसे वहांके लता मंडप मलिन हो गये हैं । वे वन लक्ष्मीके रहनेके महलोंके समान मालूम होते हैं ।"
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