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वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण बन गया था। संभवतः यह प्रश्न कवेदके सर्व प्रथम मन्त्रके साथ ही ( ईसासे ३००० वर्ष पूर्व) उठा हो गा । गाहपत्य, आहवनीय, तथा दक्षिणा नामकी प्रारम्भिक तीनों वेदियोंका क्षेत्रफल समान होने पर भी उनके श्राकार विभिन्न-वर्ग, वृत्त तथा अर्धवृत्त-होना आवश्यक था। तैत्तिरीय संहितामें रथचक्र चिति, समुह्य चिति, परिचय्य चिति नामोंसे उल्लिखित पांच वेदिकानोंको एक ऐसा वृत्त बनाना चाहिये जिसका क्षेत्रफल ऐसे वर्गके समान हो जिसका क्षेत्रफल १ होता है। उन दिनों का मूल्य ३ तथा ३.१ के बीचमें घटता बढ़ता रहता था।
का मूल्य-१०' का सबसे पहिले जैनाचायोंने ही प्रयोग किया था ऐसा प्रतीत होता है। इसका उमास्वामिने प्रयोग किया था जो कि प्रथम शती ई० पू० में हुए हैं । वे कहते हैं -
"व्यासके वर्गको दशसे गुणा करके वर्गमूल निकालने पर परिधि आती है । तथा उसमें व्यासके वर्गका गुणा करने पर क्षेत्रफल निकलता है।"
____ यह अंकन (ग =१०) इतना लोकप्रिय हुआ कि उत्तरकालीन ब्रह्मगुप्त (६२८), श्रीधर (ल० ७५०), महावीर ( ल० ८५० ), आर्यभट्ट द्वि० ( ल० ९५०), आदि वैदिक गणितज्ञों एवं ज्योतिषियोंने भी इसका खूब प्रयोग किया है ।
ग = ६३४३२ का आर्यभट्ट प्र० ने प्रयोग किया है । वे कहते हैं कि २०००० व्यासयुक्त वृत्तकी परिधिका स्थूल प्रमाण १०० धन ४ में ८ का गुणा करके ६२००० जोड़नेसे आता है ।
हम देखते हैं कि 'सहितम्' का प्रयोग जोड़ तथा गुणा-अर्थात् संख्याका बारम्बार योगदोनों अर्थों में वेदांग ज्योतिषमें किया गया है किन्तु आर्यभट्ट ( ४९९ ) तथा दूसरे गणितज्ञोंने इन दोनों अर्थों में इसका प्रयोग नहीं किया है । इसके अाधारपर यही अनुमान किया जा सकता है कि उक्त उद्धरण ई० की पांचवीं शतीसे पहिले ही लिखा गया होगा जब कि 'सहितम्' का प्रयोग-योग तथा गुणा-दोनों अर्थों में प्रचलित था। अतः स्पष्ट प्रतीत होता है कि = ३५७ तथोक्त चीनी मूल्यांकन भारतमें प्रचलित था; और संभवतः चीनसे बहुत पहिले । यह भी संभव है कि बौद्ध धर्मप्रचारकों द्वारा यह चीनको प्राप्त हुश्रा हो अथवा यह भी सर्वथा असंभव नहीं है कि उन्होने स्वतंत्र अाविष्कार किया हो ।
उक्त उद्धरणमें दूसरी महत्त्वपूर्ण बात 'सूक्ष्मादपि सूक्ष्म' है । इसका यही भावार्थ होता है कि भ का सक्ष्म मूल्य ज्ञात था जो कि = /१० अथवा ग= २२ थे । यदि तृतीय संसृत दूसरेका समीपतर संन्निकटीकरण है तो आर्यभट्टके मूल्यसे इसका सम्बन्ध भी स्पष्ट है। १–विशेष परिचय के लिए कलकत्ता विश्व विद्यालयके श्री बी० बी० दत्तका 'दी साइन्स ओफ सुल्वा ( The Science
of Sulba.) १३२. दृष्टव्य है। २–उमास्त्रामिकृत तत्त्वार्थसूत्र का सन् १९०३ में श्री के० पी० मोदी द्वारा प्रशशित कलकत्ता संस्करण ३,२ भाष्य । अभी
पता लगा है कि भाष्यसे प्राचीनतर प्राकृत ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख है। ३–आर्यभट्ट, द्वि०, १०।
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