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धर्म प्रचार और समाजसेवा-विज्ञान है, दुनिया रंगारंगी, उसकी विचित्रता है । शुद्ध जीव अमूर्तिक है; अनन्तज्ञान, अन तसुख, अनन्तवीर्य के अक्षय भण्डार स्वरूप है । शुद्ध अवस्था में वह दिखायी नहीं पड़ता, किन्तु अपने पुरुषार्थ से,अपने प्रयत्नसे, अपनी अनादि अशुद्ध अवस्थाका अन्त करके शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा बन सकता है। स्वर्ण पृथ्वीके गर्भमें अशुद्ध अवस्था में रहता है। भूगर्भसे निकाल कर विविध प्रयोगों द्वरा उसको शुद्ध किया जाता है।
और शुद्धता प्राप्त कर लेने पर वह शुद्ध ही बना रहता है। इस शुद्धि क्रिया बार बार अग्निमें तपाया जाना ही विशेषता है।
इसी प्रकार अशुद्ध आत्माको, संसारी जीवको, कर्ममलसे आच्छादित देहधारी प्राणीको, इच्छा निरोध करके, विषय वासनासे हटा कर, व्रत, संयम, ध्यान रूप, विविध प्रकारके तपश्चरणसे शुद्ध किया जाता है । शुद्ध हो जाने पर इस संसारी जीवका ही नाम परमात्मा, शुद्धात्मा. सिद्ध,
आत्मस्वरूपस्थित, वीतराग, परमेटी, अात, सार्व, जिन, सर्वज्ञ, कृती, प्रभु, निर्विकार, निरंजन, परमेश्वर अजर, अमर, सच्चिदानन्द, श्रादि अनेक हो जाते हैं ।
इस परमपदकी प्राप्तिका मार्ग श्री प्राचार्य उमास्वामिने तत्त्वार्थसूत्रमें “सम्यग्दर्शनज्ञान -चारित्राणि मोक्ष मार्ग:' बतलाया है । सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तीनोंका सम्मिलित होना मुक्तिका साधन है। ज्ञान कितना ही गहरा, कितना ही विस्तीर्ण क्यों न हो और चारित्र कितना ही कठोर
और कितना ही दुस्सह क्यों न हो, वह सभ्यक्दर्शनके अभावमें सम्यक् उपाधिको नहीं पा सकता। सम्यकदर्शन क्या है ? "तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं '' तत्त्वोंमें यथार्थ, दृढ़, अचल, अटल श्चद्वानको सम्यक्दर्शन कहते हैं।
तत्त्व मूलतः दो हैं और विशेषतः सात । मल तत्व जीव और अजीव हैं। ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता, भोक्ता, जो तत्व है. उसे जीव कहते हैं। उस ही तत्वक निमित्तसे अजीव शरीर, जीवितात्मा कहा जाता है;
और उस ही तत्त्वके इस अजीव शरीरसे पथक हो जाने पर, शरीर शव होता है। संसारमें शुद्ध जीव देखने में नहीं आ सकता, वह तो अमूर्तिक वस्तु है, इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। वह केवल अनुभव गम्य है। वह अनुभव सतत अभ्याससे प्राप्त होता है।
"इश्क क्या है, यह बस आशिक ही जाने हैं' इस अनुभव प्राप्तिके बाद ज्ञानका अद्भुत विकास होता है; सम्यक आचरणमें व्रत, समिति, गुप्ति, परिग्रहजय, ध्यान, तपश्चरणमें
आनन्द आने लगता है, ऋद्धियां स्वयं सिद्ध हो जाती हैं । हजारों मीलको बात मनुष्य इस प्रकार जान लेता है. जैसे उसके निकट समक्षमें सब कुछ हो रहा है। उसका शरीर इतना हल्का हो सकता है कि धुनकी हुई रुईके गालेके मानिन्द हवा में उड़ता फिरे, और ऐसा भारी हो सकता है कि किसी प्रकार हिलाये न हिले: इतना सूक्ष्म हो सकता है कि पर्वतोंके बीच में होकर निकल