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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
जावे, और इतना विशाल हो सकता है कि पैर फैलाये तो समस्त लोक उसके बीचमें आ जाय । फिर दुर्द्धर तपश्चरण द्वारा कर्मका समूल नाश कर स्वाभाविक अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य की शाश्वत प्राप्ति का प्रयत्न ही मनुष्यका धर्म है, उसको चाहे जिस नामसे पुकारो, वह आत्मधर्म है, निज धर्म है, जिनधर्म है।
सप्ततत्त्वोंका जो स्वरूप श्री वीरभगवानकी दिव्यध्वनिमें विपुलाचलपर श्रावणकी प्रतिपदाके दिन सर्व संसारके हितार्थ प्रतिपादित किया गया था, उस धर्म का आंशिकरूप तत्त्वार्थसूत्र में संक्षेपतः बतलाया गया है।
कर्मरूप परिवर्तित होने योग्य अजीव तत्त्व पुद्गल बेजान द्रव्यके परमाणु तथा वर्गणा लोकके प्रत्येक प्रदेशमें, देहके अन्दर आकाशमें भी ठसाठस भरे हुए हैं । संसारी जीवके मन, वचन, कायके हलन चलनके निमित्तसे ऐसे वर्गणा कर्मरूप धारण करके उस प्राणीके अत्यन्त निकट सम्पर्कमें आजाते हैं, इस पास अाजाने को आश्रव तत्व कहा गया है। सर्वतः सट जाने के पीछे प्राणी अपने कषाय सहित भावोंके निमित्तसे अपनेआप में मिला लेता है । उस एकमेक रूप को वन्ध तत्त्व कहते हैं । कर्म वर्गणाके आश्रव को रोकना संवरतत्त्व है । आत्मा प्रदेशोंमें एकमेक होकर बंधे हुए कर्मवर्गणाओं को हटा देना निर्जरा तत्त्व है । कर्ममलसे सर्वथा विमुक्त होकर आत्मा का निरावरण होजाना अथवा आत्म स्वरूप की प्राप्ति मोक्ष तत्त्व है।
इस प्रकार सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की परिपाटी चतुर्विध संघ द्वारा महावीर स्वामीके निर्वाणके बाद कई सौ बरस तक चली। फिर काल दोषसे जिनवर प्रतिपादित धर्ममें शाखा प्रशाखाएँ बढ़ती चली गयीं, और बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ीं कि प्रत्येक शाखा प्रशाखाने अपने को मूल धर्म का रूप दे दिया। मूल धर्म रूपी तनाको इन शाखाप्रशाखाओंके जालने आच्छादित कर लिया। और पृथक-पृथक मठ स्थापित कर शाखानुयायियोंने अपनी अपनी गद्दियां जमा लीं । धर्म का स्थान इन मठोंने ले लिया ।
ऐसी खेदजनक परिस्थिति को देखकर १८९९ में कुछ युवकोंने एक सभा स्थापित की ताकि मिन्न भिन्न सम्प्रदाय मिलकर मूल अहिंसाधर्म की छत्र छायामें आत्मोन्नति, धर्मोत्रति तथा समाजोन्नति करें। इसी का नाम १९०७में भारत जैन-महामंडल हो गया। इस मंडलके संचालक जैनधर्मकी दिगम्बर श्वेताम्बर, स्थानकवासी तीनों समाजोंके मुखिया पुरुष थे । ये अापसमें मिल जुलकर काम करते थे। इस मण्डल का एक अधिवेशन १९०१ में जयपुर निवासी श्री गुलाबचन्द ढड्डाके सभापतित्वमें सूरत नगरमें, १९१५ में प्रा० खुशालभाई टी० शाह की अध्यक्षतामें बम्बई में हुआ था।
तत्पश्चात श्वेताम्बर दिगम्बर सम्प्रदायमें तीर्थक्षेत्र सम्बन्धी मुकदमें कचहरीयोंमें चलने लगे । और मण्डलके उदीयमान व्यापक सर्वोपयोगी काममें भारी क्षति हुई । अब भी मंडलका कार्यालय वर्धा
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