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भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्रोत
प्राचीन भारतीय गणितज्ञोने अनन्तक्रमके उपयोगको कैसे सिद्ध किया था यह हम संभवतः कभी न जान सकेंगे। फलतः भारतीय गणितज्ञ ८ व ९ वी शती ई० सदृश प्राचीन समयमें भी अनन्त क्रमका उपयोग करते थे कह कर ही हमें संतुष्ट होना पड़ता है।
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इसके उत्तरोत्तर संसृत ३, तथा ३५ हैं ।
के मूल्यांकनका ग्रीक विद्वानोंने प्रयोग किया था अतएव इसे , का ग्रीक मूल्य कहते हैं। आर्यभटके अंकनमें यह दूसरा संसृत है तथा भारतमें ही आर्यभट्ट द्वि० तथा भास्कर द्वि० ने इसका , का स्थूल मूल्य कह कर प्रयोग किया है।
तृतीय संसृत २३ का वैदिक गणितज्ञों तथा ज्योतिषियोंने बहुत कम उपयोग किया है। सत्रहवीं शती ई० के चीनी विद्वानों के ग्रन्थों में पाये जाने के कारण पाश्चात्य विद्वान इसे ग का 'चीनी मल्य' कहते हैं। किन्तु धवलाकार श्री वीरसेनने अपनी रचना ८ अक्टूबर ८१६ ई० को समाप्त की थी। किन्तु उन्होंने इस ग-२१ मल्यांकनका प्रयोग करते हुए इसके समर्थनमें प्राचीनतर गाथा' का प्रयोग किया है जिसकी संस्कृत छायाके अनुसार विशुद्ध अनुवाद हो गा
"व्यासमें १६ से गुणा करके १६ जोड़कर तीन-एक-एक (११३ ) से भाग देकर व्याससे 'तिगुनेको जोड़नेसे 'सूक्ष्मसे सूक्ष्म' (परिधि ) निकल आता है।" ।
प-३च्या+ १६ व्या+१६ ( इसमें प तथा व्या क्रमसे परिधि तथा व्यासके लिए प्रयुक्त हैं। ) उक्त गाथार्थकी वीरसेन निम्न व्याख्या करते हैंप=३ व्या+१६व्या_ ३५५ व्या
११३- ११३ अर्थात् ग = ३६६० = १४। यह व्याख्या तब तक ठीक न होगी जब तक 'षोडश सहितम्' का अर्थ १६ बार जोड़ा गया" न किया जाय । इस प्रकार गाथाका अर्थ हो गा
"१६ से गुणित व्यास,--अर्थात् सोलह बार जोड़ा गया-में तीन-एक-एकका भाग देकर व्यासका तिगुना जोड़ देनेसे सूक्ष्मसे सूक्ष्म ( परिधि) निकल आती है।"
पाई (ग) का मूल्य
'वृत्तको वर्गाकार' बनानेका प्रश्न; अथवा भारतीय धार्मिक दृष्टिसे अधिक मौलिक एवं महत्वपूर्ण 'वर्गको वृत्ताकार' बन नेका प्रश्न वैदिक यज्ञ यागदिके साथ ही उत्पन्न हुआ था तथा अत्यन्त १-"व्यासम् षोडश गुणितं पोडशसहितं त्रि-रूप-रूपरविभक्तम् । व्यास विगुणित सहितं सूइमादपि तद् भवेत् सूक्ष्मम् ।।" २- 'अकानां वामतो गतिः' अतः । एक-एक-तीन (११३ ) संख्या होगी।