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भारतीय गणित के इतिहास के जैन-स्रोत कल्पना कीजिए कि अ तथा ब छिन्न- शंकुके आधार तथा ह ऊंचाई है । इसमें से ब त्रिज्या तथा ह ऊचाईका वेलन अलग करके रचना तथा विकृति करते हुए 'आकृति तीन' में दत्त पिण्ड प्राप्त होता है । इस आकृतिमें-
श्र श्रा=ब बा = २ग्बं
ब द=बा दा = श्रं -- बं
ब स=बा सा="( श्रं - - )
अ द=ना दा = ह
इस पिंडको तथा आ के बीचसे जाने वाली समतत ऊर्ध्वाकार रेखाओं द्वारा तीन भागों में बांट देते हैं । तब ब द दाबा या समपार्श्व और अब स द तथा श्रा बा सा दा ये दो समान चतुष्फलक बन जाते हैं । त्रिकोणात्मक आधार अ ब द पर स्थित २ बं ऊंचाई युक्त अ ब द दाबा आ
समपार्श्वका आयतन --
बदXX २
= 2 ( श्रं -- बं) XहX२
बं
= बं हं ( श्रं - - ) ...... . ( प्र ) है |
दोनों चतुष्फलकोंके श्रायतनका योग होता है-
२XX ब द×त्र सX द
= 3X ( श्रं - - ) X (अं-- बं) हं
= " ( अं--बं )२Xहं...... (द्वि)
अतएव छिन्न- शंकुका आयतन होता है-
हं+बं हं ( श्रं - बं ) + 3 ( श्रं बं ) ह
=+"हं {३ बं२+३ श्रं बं—–३ बं^+श्रंश्+चं'–२ श्रं बं }
=ते॒ग॒हं { श्रं*+बं*+२श्रं बं } यह प्रसिद्ध गुरु है। अनन्त प्रक्रिया
ब
दोनों चतुष्फलकोंका आयतन तो सीधे ही निकल आया है। प्रत्येक चतुष्फलकको (आबा ) के मध्यबिन्दु ग (गा) में से ऊर्ध्वाकार समतल रेखाएं खींचकर तीन भागो में विभक्त कर दिया है। बदह ए ग इ फ तथा बा दा हाँ ऐगा ई का पिण्डोंको एक दूसरे पर रखनेसे त्रिकोणात्मक आधार पर हं ऊंचाईका समानान्तर चतुर्भुज बन जाता है ।
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