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भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्रोत श्री डा. अवधेशनारायण सिंह, एम० एससी०, डी० एस्सी०, आदि
वर्तमानमें उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थ भारतीय ज्यौतिष तथा गणित शास्त्रकी सफलताओंका स्पष्ट संकेत करते हैं अतएव ईसाकी पांचवी शतीसे लेकर आज तकके विकासका इतिहास भी इन परसे लिखा जा सकता है। किन्तु ईसाकी ५ वीं शतीसे पहिले लिखा गया कोई भी संस्कृत ग्रन्थ अब तक देखनेमें नहीं श्राया है। ५ वीं शतीके पहिले जो गणित अथवा ज्योतिष ग्रन्थ थे वे छठी शती तथा बादकी शतियोंमें नवीकृत होकर पुनः लिखे गये थे । ६२६ ई०में लिखे गये ब्रह्मस्फुट सिद्धान्तमें ऐसे अनेक ज्योतिष ग्रन्थोंका उल्लेख है जो परिष्कृत हो कर पुनः लिखे गये थे। अतः ५ वीं शतीके पहिले ज्योतिष तथा गणित शास्त्रोंकी अवस्था बतानेवाले कोई भी प्रमाण संस्कृत ग्रन्थों में नहीं हैं। यह वह समय था जब संभवतः आर्यभट और उनके पूर्ववर्ती पाटलिपुत्रीय विद्वानोंके प्रभावसे भारतमें अंकोंके 'स्थान मूल्य' का सिद्धान्त प्रचलित हुआ होगा।
अभी कुछ समय पहिले मैं जैन साहित्य में ऐसी सामग्रीको पा सका हूं जो 'स्थानमूल्य' के सिद्धान्तके पहिलेके अर्थात् ईसाकी ५ वीं शतीसे पूर्वके भारतीय गणित और ज्यौतिषके इतिहासके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण सूचनाएं देती है । जिन उल्लेखोंका मैं यहां विवेचन करूंगा वै श्राचार्य श्री भूतबलि--पुष्पदन्त द्वारा विरचित षट्खण्डागम सूत्रोंकी "धवला" टीकामें पाये जाते हैं । जिसका कुछ वर्ष पहिले सुप्रसिद्ध जैन पंडित हीरालालजीने सम्पादन किया है। धवलाटीकामें साधारणतया विविध प्राकृत ग्रन्थोंके उद्धरण हैं। ये उद्धरण ऐसे ग्रन्थोंसे हैं जिनका पठन पाठन वैदिक विद्वानोंने छोड़ दिया था किन्तु जैन विद्वान १० वीं शती तक इनका उपयोग करते रहे थे । ५ वीं शतीमें प्राकृत साहित्यिक भाषा न रही थी और न इसमें उसके बाद कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ही लिखा गया है। अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि जैन ग्रन्थों में प्राप्त उद्धरण उन ग्रन्थों के हैं जो ईसाकी ५ वीं शतीके पूर्व ही लिखे गये थे।
....... सन् १९१२ में श्री रंगाचार्य द्वारा 'गणितसार संग्रह' के प्रकाशनके बादसे गणितज्ञोंको सन्देह होने लगा है कि प्राचीन भारतमें एक ऐसा भी गणितज्ञोंका वर्ग था जिसमें पूर्ण रूपसे जैन विद्वानोंका ही प्राधान्य था । कलकत्ता गणित-परिषद्-(कलकत्ता मैथमैटिकल सोसाइटी) के विवरणके २१ ३ भागमें
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