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वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ कालमें भी जैनाचार्योंने सम्वत्सर-सन्बन्धी जो गणित और फलितके नियम निर्धारित किए हैं वे जैनेतर भारतीय ज्योतिषमें आठवीं शतीके बाद व्यवहृत हुए हैं । नाक्षत्र सम्वत्सर, ३२७ + ५२; युग सम्वत्सर पांच वर्ष प्रमाण, प्रमाण सम्वत्सर, शनि सम्वत्सर । जब बृहस्पति सभी नक्षत्रसमूहको भोग कर पुनः अभिजित् नक्षत्र पर आता है तब महानाक्षत्र सम्वत्सर होता है। फलित जैन ज्योतिषमें इन सम्वत्सरोंके प्रवेश एवं निर्गम आदिके द्वारा विस्तारसे फल बताया है, अतः निष्पक्ष दृष्टि से यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भारतीय ज्योतिषके विकासमें जैन सम्वत्सर प्रक्रिया का बड़ा भारी योग दान है ।
षट्खण्डागम धवला टीकाके प्रथम खण्ड गत चतुर्थांशमें प्राचीन जैन ज्योतिषकी कई महत्त्वपूर्ण बातें सूत्ररूपमें विद्यमान हैं उसमें समयके शुभाशुभका ज्ञान करानेके लिए दिनरात्रि के (१) रौद्र (२) श्वेत (३) भैत्र (४) सारभट (५) दैत्य (६) वैरोचन (७) वैश्वदेव (८) अभिजित् (९) रोहण (१०) बल (११) विजय (१२) नैऋत्य (१३) वरुण (१४) अर्यमन् और (१५) भाग्य मुहूर्त बताये हैं। इन दिनमुहूत्तों में फलित जैन ग्रन्थोंके अनुसार रौद्र, सारभट, वैश्वदेव; दैत्य
और भाग्य यात्रादि शुभ कार्यों में त्याज्य हैं । अभिजित् और विजय ये दो मुहूर्त सभी कार्यों में सिद्धिदायक बताये गये हैं । आठवीं शतीके जैन ज्योतिष सम्बन्धी मुहूर्त्तग्रन्थों में इन्हीं मुहूर्तोंको अधिक पल्लवित करके प्रत्येक दिनके शुभाशुभ कृत्योंका प्रहरों में निरूपण किया है । इसी प्रकार रात्रिके भी ( १) सावित्र (२) धुर्य ( ३) दात्रक (४) यम (५) वायु (६) हुताशन (७) भानु (८) वैजयन्त (९) सिद्धार्थ (१०) सिद्धसेन (११) विक्षोभ (१२) योग्य (१३) पुष्पदन्त, (१४) सुगंधर्व और (१५) अरुण ये पन्द्रह मुहूर्त हैं । इनमें सिद्धार्थ, सिद्धसेन, दात्रक और पुष्पदन्त शुभ होते हैं शेष अशुभ हैं । . सिद्धार्थको सर्वकार्योंका सिद्ध करनेवाला कहा है। ज्योतिष शास्त्र में इस प्रक्रियाका विकास आर्यभट्टके बाद निर्मित फलित ग्रन्थों में ही मिलता है।
तिथियोंकी संज्ञा भी सूत्ररूपसे धवलामें इस प्रकार आयी है--नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता (तुका), और पूर्णा ये पांच सज्ञाएं पन्द्रह तिथियोंकी निश्चित की गयी हैं, इनके स्वामी क्रमसे चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, आकाश और धर्म बताये गये हैं। पितामह सिद्धान्त, पौलस्त्य-सिद्धान्त और नारदीय सिद्धान्तमें इन्हीं तिथियोंका उल्लेख स्वामियों सहित मिलता है, पर स्वामियोंकी नामावली जैन नामावलीसे सर्वथा भिन्न है। इसी प्रकार सूर्यनक्षत्र, चान्द्रनक्षत्र, बार्हस्पत्यनक्षत्र एवं शुक्रनक्षत्रका उल्लेख भी जैनाचार्योंने विलक्षण सूक्ष्मदृष्टि और गणित प्रक्रियासे किया है। भिन्न-भिन्न ग्रहोंके नक्षत्रोंकी प्रक्रिया पितामह सिद्धान्तमें भी सामान्यरूपसे बतायी गयी है।
१ "रौद्रः श्वेतश्च ....इत्यादि" धवला टीका, चतुर्थ भाग पृ० ३१८।। २ "सवित्रो धुर्यसंशश्च ...." इत्यादि । धवला टीका, चतुर्थ भाग, पृ० ३१९ ।