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उत्तराध्ययनसूत्रका विषय चित्र जैन मुनि थे तथा भोग विलासोंसे विरक्त होकर तापस जीवन व्यतीत करते थे । संभूत राजा थे
और भोगोंमें आकण्ठ मग्न थे। दोनों प्राचीन जन्ममें सुहृद थे इसी भावसे प्रेरित होकर चित्रने संभूतको बड़ा सुन्दर उपदेश दिया-समय बीत रहा है । दिन जल्दी बीत रहे हैं । मनुष्योंके भोग कथमपि नित्य नहीं हैं । वे मनुष्यके पास आते हैं और उसे उसी प्रकार छोड़ देते हैं जिस प्रकार पक्षी फलहीन वृक्ष को।'
...... (४) इसुकारको कथा-(१४ अ० )—इसमें कर्मासक्त पुरोहित तथा उनके ज्ञानी तपस्वी पुत्रोंका अध्यात्म विषयक वार्तालाप है । बौद्धोंके हस्तिपाल जातक (जाः ५०९) में इसकी स्पष्ट सूचना है । भृगु और उनकी पत्नी वासिष्ठिका बड़ा मनोरम तथा शिक्षाप्रद संवाद भी इसी भावनासे अोतप्रोत है। क्योंकि वेदपाठको मुक्तिका साधन न मानकर इसमें तपस्या तथा निष्काम जीवनको मुक्तिका उपाय बतलाया है।
(५) रथनेमिकी कथा—(२२ अ०) भगवान कृष्णचन्द्रकी कथासे यह कथा सम्बद्ध है। अरिष्टनेमिने जैनमतानुयायी मुनि बनकर अपनी मनोनीत पत्नीकाभी परित्याग कर दिया। रथनेमि उन्हीं के . भाई थे, पर चरित्र में हीन थे।
२३ वें अध्ययनके अनुशीलनसे उस समय पार्श्वनाथ तथा महावीरके अनुयायियोंके परस्पर मतभेदका पता चलता है । इस परिच्छेदको हम ऐतिहासिक दृष्ठिसे बड़े महत्त्वका मानते हैं । महावीरके समान पार्श्वनाथ भी ऐतिहासिक पुरुष हैं, इसमें सन्देह करनेकी जगह नहीं है। जैन सम्प्रदायकी यह मान्यता कि वे महावीरसे ढाई सौ वर्ष पहले उत्पन्न हुए, नितान्त सच्ची है । केशी पार्श्वनाथके मतानुयायी ये तथा गौतम महावीर के । कहा जाता है कि पार्श्वनाथ चार व्रतके उपदेष्टा थे तथा महावीर पांच व्रतों के । ब्रह्मचर्य (पंचम व्रत ) का ग्रहण अपरिग्रहके अन्तर्गत पार्श्वनाथको मान्य था, परन्तु कालान्तरमें इस व्रतके ऊपर विशेष जोर देनेकी आवश्यकता होनेसे इसका निर्देश अलग किया गया। वस्त्रके विषयमें दोनोंके विभेदका यहां स्पष्ट उल्लेख है। पार्श्वनाथ यतियोंके लिए वस्त्र-परिधान के पक्षपाती थे, पर महावीर परिधानके एकान्त विरोधी थे२ । गौतमकी व्याख्यासे इसका धार्मिक रहस्य स्फुटित होता है कि मोक्षके साधनके लिए ज्ञान, दर्शन तथा चरित्रकी आवश्यकता है, बाह्य आचरणकी नहीं
अह भवे पइन्ना उ मोक्खसब्भूयसाहणा। नाणं दसणं चेव चरित्तं चेष निच्छए ॥ (२३ । ३३)
१, अच्चे कालो तरन्ति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा ।
उविच्च भोगा पुरिसं चयंति दुमं जहा खीणफल व पक्खी ।। (१३/३१) २ अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिओ बदमाणेण पासेण य महाजसा ॥ २९.
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