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संतोंका मत
पथ चलते यदि कोई गिर भी पड़े तो कोई हरजा नहीं।
"मारग चलते जो गिरै ताको नाहों दोस ॥"(वही पृ० ३६४ ) अचलताके प्रति कबीरकी भक्ति न थी। उनका प्रेम बलिष्ठ प्रेम था, इसी लिए प्रेमको साधना द्वारा उनने वीरत्वकी साधना करनी चाही थी। इस संसार में प्रवेश करते ही उन्होंने सुना कि आकाशमें रण दमामा बज रहा है, युद्धका नगाड़ा चोट खा रहा है और उस चोटकी तालसे ताल मिलाकर जीवन की बाजी लगाते हुए उनको अग्रसर हो चलना पड़ेगा।
"गगन दमामा बाजिया पड़या निसान घाव ॥"
कबीर कहते हैं-जिस मृत्युसे सब डरते हैं मुझे उसीसे आनन्द प्राप्त होता है । मौतकी परवाह न कर निडर होकर आगे बढ़ना होगा।
"जिस मरणे थे जग डरै सो मेरे आनन्द ॥" (वही पृ० ६९) कबीर कहते हैं कि प्रेमकी कुटियापर पहुंचनेके लिए अगम्य अगाध रास्ता चलना पड़ता है। जो अपना शीश उनके चरणोंमें उपहार दे सकता है उसे ही प्रेमका स्वाद मिलता है।
"कबीर निज घर प्रेमका मारग अगम अगाध । सीस उतारि पग तलि धरै तब निकटि प्रेमका स्वाद ॥ ( वही पृ०६९)
साधनाका पथ दुर्गम व अगाध होने पर भी साधकोंके दल इस पथ पर चलने में कभी नहीं डरे । भारतके आकाशसे विधाताकी जो आदेशवाणी उनके दमामेंमें नित्य ध्वनित होती है, वही सब साधनाकी समन्वयवाणी है। इस पथपर जो साधक आते हैं उनके दुःख-दुर्गति-लांछनका कोई अंत नहीं रह जाता है । उनके लिए घर और बाहर सर्वत्र दिन रात उत्पीड़न व अत्याचार प्रतीक्षा किया करता है । इतना होने पर भी भारतके यथार्थ तपस्वियों का दल इन सब विपदोंसे भीत होकर पीछे न हटा । युगयुगमें उनका आविर्भाव होता ही रहा । वीर लड़ाईके मैदानमें चला,वह भला क्यों पश्चाद पद होने लगा ?
"सूरा चढ़ि संग्राम को पाछा पग क्यों देइ ॥” ( दादू, सुरातन अङ्ग, १३) यही है वीरोंकी साधना-पथ, यहां कापुरुषोंका स्थान नहीं ।
"कायर काम न आवइ बहुसूरेका खेत ॥” ( वही, १५ ) अष्ट प्रहर साधनाका यह युद्ध बिना खड़गके चल रहा है;
"आठ पहरका जूझना विना खाँडै संग्राम ।" (साखी ग्रन्थ सुरमा अङ्ग, ५९ )
१ नागरी प्रचारिणी सभाकी कबीर थायली पृ० ६८ ।