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भारतीय-ज्योतिषका पोषक जैन-ज्योतिष श्री पं० नेमिचन्द्र जैन, शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, ज्यौतिषाचार्य
__ भारतीय आचार्योंने "ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्" ज्योतिष शास्त्रकी व्युत्पत्ति की है अर्थात् सूर्यादि ग्रह और कालका बोध करानेवाले शास्त्रको ज्योतिष शास्त्र कहा है । इसमें प्रधानतया ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु, आदि ज्योतिःपुओंका स्वरूप, संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओंका निरूपण तथा ग्रह, नक्षत्रोंकी गति, स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ फलोंका कथन किया जाता है। ज्योतिषशास्त्र भी मानवकी आदिम अवस्थामें अंकुरित होकर ज्ञानोन्नतिके साथ-साथ क्रमशः संशोधित और परिवर्धित होता हुआ वर्तमान अवस्थाको प्राप्त हुआ है। भारतीय ऋषियोंने अपने दिव्यज्ञान और सक्रिय साधना द्वारा अाधुनिक यन्त्रोंके अभाव मय प्रागितिहासकालमें भी इस शास्त्रकी अनेक गुत्थियोंको सुलझाया था। प्राचीन वेधशालाओं को देखकर इसीलिए आधुनिक वैज्ञानिक आश्चर्यचकित हो जाते हैं। ज्योतिष और आयुर्वेद जैसे लोकोपयोगी विषयोंके निर्माण और अनुसन्धान द्वारा भारतीय विज्ञानके विकासमें जैनाचार्योंने अपूर्व योग दान दिया है। ज्योतिषके इतिहासका आलोडन करने पर ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों द्वारा निर्मित ज्योतिष ग्रन्थोंसे जहां मौलिक सिद्धान्त साकार हुए वहीं भारतीय ज्योतिषमें अनेक नवीन बातोंका समावेश तथा प्राचीन सिद्धान्तोंमें परिमार्जन भी हुए हैं । भारतका इतिहास ही बतलाता है कि ईस्वी सन्के सैकड़ों वर्ष पूर्व भी इस शास्त्रको विज्ञानका स्थान प्राप्त हो गया था । इसीलिए भारतीय आचार्योंने इस शास्त्रको समयसमय पर अपने नवीन अनुसन्धानों द्वारा परिष्कृत किया है। जैन विद्वानों द्वारा रचे गये ग्रन्थोंकी सहायताके विना इस विज्ञानके विकास-क्रमको समझना कठिन ही नहीं, असंभव है। ग्रह, राशि और लग्न विचारको लेकर जैनाचार्योंने दशकों ग्रन्थ लिखे हैं। आज भी भारतीय ज्योतिषकी विवादास्पद अनेक समस्याएं जैन ज्योतिषके सहयोगसे सुलझायी जा सकती हैं।
यों तो भारतीय ज्योतिष का शृङ्खलाबद्ध इतिहास हमें आर्यभट्टके समयसे मिलता है, पर इनके पहलेके ग्रन्थ वेद, अंग साहित्य, ब्राह्मण ग्रन्थ, सूर्यप्रशप्ति, गर्गसंहिता, ज्योतिषकरण्डक एवं वेदाङ्गज्योतिष प्रभृप्ति ग्रन्थोंमें ज्योतिष शास्त्रकी अनेक महत्त्वपूर्ण बातोंका वर्णन है । वेदाङ्गज्योतिष में पञ्चवर्षीय युगपर से