________________
मध्ययुगीन सन्त साधनाके जैन मार्गदर्शक
बाहरी वेश-भूषा, नहाना-धोना या ऊपरी मनसे जपतप वस्तुतः कोई विशेष सिद्धि नहीं देते, इस बातका प्रचार इन जैन साधकोंने बड़ी शक्तिशाली भाषामें किया है। मुनि रामसिंहने भेषकी व्यर्थता दिखानेके लिए सांपकी कैंचुलीसे उपमा दी है। ऊपरी आवरणको सांप छोड़ देता है और नवीन आवरण धारण करता है। इससे उसका विष थोड़े ही नष्ट होता है। इसी प्रकार भेष बदल कर साधु बन जानेसे आदमी शुद्ध नहीं होता । इसके लिए आवश्यक है भोग-भावका परित्याग । जब तक यह नहीं होता तब तक नाना वेषोंके धारणसे क्या लाभ है ?
सप्पि मुक्की कंचुलिय जं विसु तंण मरेइ ।
भोयहं भाव ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ । - मुनि रामसिंहने लिखा है कि हे योगी, जिसे देखनेके लिए तू तीर्थों में घूमता फिरता है वह शिव भी तो तेरे साथ साथ घूम रहा है, फिर भी तू उसे नहीं पा सका
जो पइं जोइउं जोइया तित्थई तित्थ भमोइ। . ..
सिउ पइसिहं हहिडियउ, लहिवि ण सक्किउ तोइ ॥ इसे पढ़ते ही कबीरदासका वह प्रसिद्ध भजन याद आ जाता है जिसमें कहा गया है'मोको कहां ढूढ़े बंदे, मैं तो तेरे पासमें।' परम प्राप्तव्य इस शरीरके बाहर नहीं हैं, जो कुछ ब्रह्मांड में प्राप्त है वह सभी पिंडमें पाया जा सकता है। यह उस युगकी प्रधान विशेषता है। इन जैन साधकोंने भी अपने ढंगसे इस सत्यका प्रचार किया है । मुनि रामसिंहने कहा है कि ए मूर्ख ! तुम देवालयोंको क्या देखते फिरते हो। इन देवालयोंको तो साधारण लोगोंने बना दिया है। तुम अपना शरीर क्यों नहीं देखते जहां शिवका नित्य वास है ?
मूढ़ा जोवइ देवलई, लोयहिं जाइं कियाई ।
देह ण पिच्छइ अप्पणिय, जहिं सिउ संतु ठियाई ॥ पुस्तकी विद्यासे वह परम प्राप्तव्य नहीं पाया जाता । कथन मात्रसे उसे नहीं उपलब्ध किया जा सकता । गोरखनाथने रटंत विद्याका परिहास करते हुए कहा था
"पढ़ा-लिखा सुत्रा विलाई साया, पंडितके हाथां रह गई पोथी" तोता सब शास्त्र पढ़ जाय तो भी विलाईके हाथसे नहीं बच पाता और हाथमें पोथी लिये लिये पंडित मायाका शिकार हो जाता है। जोइन्दुने भी पुस्तकी विद्याकी व्यर्थता बतायी है । यह जो चेला-चेलियोंका ठाट बाट है, पोथियोंका अम्बार है, इनके चक्करमें पड़ा हुआ जीव भले ही प्रसन्न हो ले परन्तु है यह अनुभवगम्य सत्यके लिए अन्तराय ही है (परमात्मप्रकाश २,८८ ) जब तक चित्त