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वर्णी अभिनन्दन-ग्रंथ
गुरू एवं मरशेदके पक्षवालोंका स्वार्थ भेद बुद्धिको बनाये रखने में है। ये सब बातें उनकी जबानपर नहीं आतीं । इसलिए वे बात बातमें भेद-विभेदकी दुहाई देते हैं ।
कबीरको जब सब कहने लगे- "तू नीच कुलका होकर भी इन सब सत्योंका संधान कैसे पा गया ?" तो कबीरने जवाब दिया-"बरसात होनेपर पानी तो ऊंचे स्थानपर नहीं ठहरता, सब पानी बह कर नीचेकी अोर इकट्ठा होता है, सबके चरणोंके नीचे ।
"उचै पानी ना टिकै नीचे ही ठहराय' ॥" कबीरने फिर एक जगह कहा-'पण्डित लोग पढ़ पढ़कर पत्थर, और लिख लिखकर ईट हो गये. उनके मन में प्रेमकी एक छींट भी प्रवेश न कर पाती है।
"पढ़ि पढ़िके पत्थर भये लिखि लिखि भये जू इंट।
कवीर अन्तर प्रेमकी लागि नेक न छीटर ॥" संस्कृत न जाननेवाले कबीर काशीमें बैठे बैठे चारों ओर पंडितों में बेधड़के मनकी बात चलती भाषामें जोरसे प्रचार करने लगे-सब कहने लगे-“कबीर, यह क्या कह रहे हो ?" कबीर बोले"संस्कृत कुएके पानी जैसा है और भाषा है बहती जलधारा ।"
"संस्कृत है कूपजल भाषा बहता नीर ॥" (वही, पृ०३७९ ) नाना संस्कृतिके मिलनसे हिन्दू (भारती) संस्कृतिको गठन होनेकी वजहसे इसमें गतिशीलताके लिए एक प्रकारकी श्रद्धा फूट पड़ती थी। ऐतरेय ब्राह्मण में इन्द्रकी सार बात 'अग्रसर हो चलो' यही देखनेको मिलती है। मध्ययुगकी सार बात-"अग्रसर हो चलो' ही है । अग्रसर न होनेकी शिक्षा हम लोगोंको आजकल अंग्रेजीके शिक्षितोंमें अधिक देखनेको मिलती है-अंग्रेजी सभ्यता असल में स्थितिशील या कन्जर्वेटिव सभ्यता है। कबीर सर्वदा सचल एवं सजीव भावोंके उपासक थे। अचलताके अंधकारक उनने किसी दिन पूजा नहीं की। वे कहते-बहता पानी निर्मल रहता है, बंधा पानी ही गंदा हो उठता है। साधक गण भी यदि सचल हों तो अच्छा है । ऐसा होनेपर किसी तरहका दोष उनको स्पर्शनहीं कर पाता है ?
"बहता पानी निरमला बंदा गंदा होय । साध तो चालता भला दाग न लागै कोय ॥” ( वही पृ० ६७ )
१ बालकदासजी द्वारा प्रकाशित कबीर साहेबका साखी ग्रन्थ, पृ० ३९८ २ वही पृ० १९९ ।
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