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संतोंका मत श्री आचार्य क्षितिमोहन सेन
मध्य युगके साधकोंकी कुछ बातें कही जा रही हैं । जातिभेद तो समाजतत्त्वके साथ युक्त है । उन साधकोंके लिए धर्म ही सार था । मध्ययुगके ये साधु-संत भगवान के साथ प्रेमद्वारा युक्त किये हुए वैयक्तिक योगकी खोजमें थे। इस सम्बध प्रतिष्ठाके रास्ते, बाह्य आचार, शास्त्र, भेष प्रभृतिका प्रयोजन उन्होंने स्वीकार नहीं किया। भगवतप्रेमकी तुलनामें वे सभी उनके लिए तुच्छ थे । उन्होंने यह नहीं स्वीकार किया कि स्वर्ग में पहुंचनेके लोभसे एवं नरकवासके डरसे धर्मका प्रवर्तन हुआ है। इस प्रेम-धर्ममें उन्होंने ऐसा एक अभेद और साम्य पाया जो वेदान्तमें वर्णित अभेदसे कहीं ज्यादे सरस है।
प्रेम पथके पथिक होनेकी वजहसे उन्होंने कायाको वृथा क्लिष्ट करना न चाहा। फिर भी प्रेम ही के लिए उनको देह-मनका सर्वविध कलुष, सयत्नसे परिहार करना पड़ा है। उन्होंने देहको देवालय माना है । एवं इसी देवालयमें देहातीत चिन्मय ब्रह्मकी प्रतिष्ठा की है। उनके लिए मिट्टी-पत्थरके देवालयोंमें प्रतिष्ठित मूर्तिका कोई मूल्य नहीं। बाह्य उपचारों द्वारा की गयी पूजा वे अर्थहीन समझते थे । दया, अहिंसा, मैत्रो यही उनकी साधनाएं थीं। शास्त्रों में इन साधनाओंका तत्त्व नहीं मिलता । देहके अंदर ही विश्व ब्रह्माण्डकी स्थापना है । एवं इस परम तत्त्वको गुरु ही दर्शा सकते हैं यह बात वे मानते थे । फल स्वरूप गुरू के लिए उनकी अचल भक्ति थी। साधुओं के सत्संगसे प्रेमभाव उपजता है इसलिए साधुसेवा एवं साधुसंग भी महाधर्म है। जहां भक्ति होती है वहीं भगवान विराजते हैं । बाह्य आचारोंसे क्या होगा, प्रेम ही से प्रेम उपजता है ।
"प्रेम प्रेम सौं होय,” (रविदास)। भगवानका स्वरूप ही प्रेम है । श्रद्धा एवं निष्ठाद्वारा क्रमसे रूचि, आग्रह एवं अनुरागकी उत्पत्ति होती है। फिर अनुरागसे प्रेम उपजता है। प्रेम उपजने पर प्रेम-स्वरूपके साथ सम्बंध कर लेना सहज हो जाता है । और जब यह सहज सम्बंध प्रतिष्ठित होता है तभी जीवनकी चरम सार्थकता मिलती है।
वे गुरूसे इन सब तत्त्वोंकों सुना करते। इसलिए गुरूके प्रति उनकी श्रद्धा-भक्तिका कोई अंत न था। गुरूके प्रति इस प्रकारकी भक्तिका उल्लेख बौद्ध महायान धर्ममें, तन्त्रोंमें, पुराणोंमें, मध्य
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