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उत्तराध्ययन सूत्रका विषय श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार गोतम गोत्री स्थूलभद्रकी अध्यक्षता में पाटलीपुत्रमें ३०० ई०
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के आसपास जैन मुनियोंकी जो समिति हुई उसीमें अंगों का लिपिबन्धन कार्य सपन्न हुआ | भाषा तथा भाव – उभय दृष्टियोंसे उत्तराध्ययनकी प्राचीनता स्वतः सिद्ध है । अतः यह उस समय भी सिद्धान्त में सम्मिलित था, माननेमें विशेष विप्रतिपत्ति नहीं प्रतीत होती । उपदेशोंकी सुन्दरता के कारण यह ग्रंथ नितान्त लोकप्रिय है ।
जैन धर्मके स्वरूपकी समीक्षा करनेसे स्पष्ट ही प्रतीत होता कि भारतीय संस्कृतिको अहिंसामय बनाने का श्रेय उसे ही है । इसकी छाया उपनिषदों में निहित सिद्धान्तों में विकासित हुई है । यज्ञोंके हिंसात्मक होने से जैनधर्म उसका निन्दक है, दार्शनिक जगत् में सांख्योंने भी इस मतकी उद्भावना की । यज्ञोंमें क्षय, अतिशय तथा अविशुद्धि होनेसे सांख्य यज्ञोंको दोषयुक्त ही मानता है । यज्ञों में पशुहिंसा होनेके कारण ही समग्र फलमें किञ्चित् न्यूनता आ जाती है । व्यासभाष्य में इसे 'आवापगमन' कहा है ' । यज्ञोंको
नौका ( प्लवा एते अदृढा यज्ञरूपाः) उपनिषद् भी बतलाते हैं । इसीलिए आरण्यकों में ही यज्ञकी भावनाको विस्तृत रूप दिया गया है । श्रीमद्भगवद्गीता इसी विशाल यज्ञ भावनाकी चतुर्थ अध्याय में व्याख्या करती है । बाह्य आचार तथा शौचकी अपेक्षा आभ्यन्तर शौच पर अग्रह करना उपनिषदों का भी पक्ष है और जैनधर्ममें तो इसका समुद्र ही है । उपनिषदोंमें किसी एक ही मतके प्रतिपादन की बात ( एकान्त ) ऐतिहासिक दृष्टिसे नितान्त हैय है । उनकी समता तो उस ज्ञानके मानसरोवर ( अनेकान्त ) से है जहां से भिन्न भिन्न धार्मिक तथा दार्शनिक धाराएं निकलकर इस भारत भूमिको आप्यायित करती आयी हैं । इस धारा (स्याद्वाद ) को अग्रसर करनेमें ही जैन जैनधर्मका महत्त्व है । इस धर्मका आचरण सदा प्रत्येक जीवका कर्तव्य है । वर्धमान महावीरने स्पष्ट शब्दों में कहा है
जरा जाव न पीडेड वाही जाव न घटुइः। जाविंदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे ॥
१ लेखकका 'भारतीय दर्शन' (पृष्ट ३३५ )
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