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जैन पुराणों के स्त्रीपात्र साहित्यिक दृष्टि से कई स्थलोंपर पुरुषपात्रों की अपेक्षा नारी पात्रों के चरित्रमें अधिक आन्तरिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति हुई है । नारी पात्रों में कुछके चरित्रोंपर परिस्थितियोंके घात-प्रतिघात इस प्रकार पड़े हैं कि उनसे उनका चरित्र अत्यधिक प्रभावोत्पादक हो गया है। सीता, अंजना, राजुल, आदि कतिपय ऐसी पौराणिक नारियां हैं जिनके चरित्रका उत्कर्ष विविध परिस्थितिमों से हो कर त्यागवृत्ति में परिवर्तित होता हुआ आदर्श स्वरूप में प्रकट हुआ है । पुराणकारोंकी यह विशेषता है कि उनने पहले नारियोंका त्याग विवशावस्था में दिखलाया है किन्तु आगे उस त्यागको स्वेच्छा और आत्महितकी कामनासे कृत सिद्ध किया है ।
जैन पुराणोंके चरित चित्रणकी एक विशेषता यह है कि उनके नारी पात्रोंका अपना व्यक्तित्व है । राधा के समान उनके नारीपात्र पुरुषके व्यक्तित्वसे सम्बद्ध नहीं हैं किन्तु नारीकी पृथक् सत्ता स्वीकार कर पुरुषपात्रोंके समान उसके जीवनकी गतिशीलता, त्याग, साइस, शील, इन्द्रिय विजय प्रभृति अनुकरणीय गुणोंका सुन्दर अंकन किया है। लौकिक दृष्टिसे भी जैन पुराणोंके नारी पात्र सजीव रूपमें सामने उपस्थित हो कर जीवनके उत्थानकी शिक्षा देते हैं । आदिपुराण और पद्मपुराणके कुछ स्थल तो इतने सुंदर हैं कि धार्मिक दृष्टिसे उनका जितना महत्त्व है, साहित्यिक दृष्टिसे कहीं उससे अधिक है । अंजना और राजुलके विरहकी मूक वेदना इतनी मर्मस्पर्शी है कि इन दोनोंके चरित्रोंको पढ़कर ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो सहानुभूति के दो आंसू न गिरा सके । करुणा से हृदय आर्द्र हुए विना नहीं रह सकता है । वैदिक पुराण निर्माताओंने भी श्रीकृष्णके विरह में गोपिकाओं के विरही हृदयकी सुन्दर व्यंजना की है । किन्तु जहां गोपिकाओं का जीवन अपने आराध्य प्रियके जोवनके साथ सम्बद्ध है, वहां जैनपुराणोंकी नारीका जीवन स्वतन्त्र रूपमें है । पुरुष के समान आत्म विकासमें नारी भी स्वतन्त्र रूपसे अग्रसर हुई है । चहार दिवारीके भीतर रख कर जैन पुराणकारोंने उसे केवल विरह में ही नहीं तपाया है किन्तु आत्मसाधना की में गलाकर उसे पुरुषके समान शुद्ध किया है । नारीके मातृत्व के साथ उसके त्यागी जीवन का यह समन्वय जैन पुराणोंकी भारतीय साहित्यको एक अमूल्य देन है। जहां इतर भारतीय पुराणोंमें नारीका केवल एक ही जीवन दिखलायी पड़ता है वहीं जैन पुराणों में उसके दोनों पक्षोंका स्पष्ट प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है ।
भारतीय साहित्य की दृष्टिसे चरित्र चित्रणकी सफलताका एक प्रधान मापदण्ड यह है कि जो चरित्र जीवनको जितना अधिक ऊंचा उठा सके वह उतना ही सफल माना जाय गा । एका-एक किसीके त्याग या तपस्याकी बात मानव हृदयको प्रभावित नहीं कर सकती है, किन्तु जब यही बात संघर्षकी आग में उपकर द्वन्द्वात्मक तराजू के पलड़ोंपर भूलती हुई – कभी इधर और कभी उधर झुकती हुई मानव हृदयको प्रभावित करके एक और बोझल हो लुढ़क जाती है तो प्रत्येक व्यक्ति उसके प्रभावमें आ जाता है
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