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भारतीय अश्वागम अश्वनामोंके पूर्व विवेचन से ही नहीं अपितु संस्कृत टीकाकारोंके सावधान विवेचनसे भी स्पष्ट है । यथा- 'अश्वबला' शब्दका अर्थ करते हुए डल्लण ( ल० ११०० ई० ) का उसे शाक कहना, अथवा इसकी व्याख्या में सुश्रुतका 'अश्वबला तथा गोथिका समानार्थक हैं जिसके लम्बे पत्ते होते हैं तथा जिसे तुरुष्क देश में 'हिस्फित्थ' कहते हैं, आदि । अन्यत्र ' मैं लिख चुका हूं तुर्की, फारस, अरब में हिस्फित्थ अथवा इस्पित्त अथवा अस्पित्त एक घास है जिसे खिलाकर घोड़े मोटे किये जाते हैं । अपने कोश में आगत शब्दों का विग्रह आचार्यने वैयाकरणकी दृष्टिसे किया है, फलतः उसको ऐतिहासिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता । फलतः " कोक वदाहन्ति भुवं कोकाहः, खमुद्गाहन्ते खोङ्गाहः; पृषोदरादित्वात्, सीरवदाहन्ति भुवं सेराहः, हरिं वर्णं यान्ति हरियः, खुरैर्गाहते खुङ्गाहः, क्रियां न जहाति क्रियाहः, त्रीन यूथति त्रियूहः, व्योम्नि उल्लङ्घते वोल्लाहः, उरसा हन्ति उराहः, सुखेन राहेति सुरुहकः, वैरिणः खनति वोरुखानः, कुलमाजिहीते कुलाहः, उच्चैर्नह्यते उकनाहः, हलवदाहन्ति हलाहः, हलति क्ष्मां हालकः । यदि विग्रह मौलिक एवं पांडित्यपूर्ण हो कर भी ऐतिहासिक नहीं कहे जा सकते। क्योंकि असंस्कृत शब्दोंका विग्रह संस्कृत व्याकरण अथवा कोशके आधारपर करना उचित नहीं है । इतिहास एवं भाषा के शास्त्री ही इन शब्दों की प्रामाणिक व्याख्या कर सकते हैं । फलतः उक्त ग्रन्थोंके सिवाय अन्य संस्कृत ग्रन्थों में इन नामोंकी शोध संस्कृतज्ञोंको करना चाहिये तथा फारसी और अरबीके विद्वानोंको भी इनके मौलिक उद्गमादिपर प्रकाश डालना चाहिये। तभी इनके वास्तविक विग्रह किये जा सकें गे।
१ भारतीयविद्या ( बम्बई ) में प्रकाशित 'अश्वबला' लेख।
२ बैक्ट्रिया (प्राचीन ईरान धन हिन्दूकुश और ओक्सस नदीके मध्यका लम्बा प्रदेश ) अथवा वालहीक, मींडों का साम्राज्य, मैडिकजड़ी, अर्थशास्त्र तथा हर्षचरित में वर्णित बालूहीक अश्व, आदिका विचार अश्वबला तथा बाल्हीक अथवा बैक्ट्रियासे सम्बन्धका संकेत करता है।
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