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वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ
विषय परिचय-
(१) षड्खंडोंमें प्रथम खंडका नाम जीवस्थान है । उसमें सत्संख्यादि आठ अनुयोग से गुणस्थान और मार्गण स्थानोंका आश्रय लेकर जीवस्वरूपका वर्णन है । (२) दूसरे खंडका नाम क्षुद्रबंध या क्षुल्लक बंध है । इस खंड में स्वामित्वादि ग्यारह प्ररूपणा में कर्मबंध करनेवाले जीवोंका कर्म बंधके भेदों सहित वर्णन है । (३) तीसरे खंडका नाम बंध-स्वामित्व-विचय है । इसमें कितनी प्रकृतियोंका किस जीव के कहां तक बंध होता है ? कितनी प्रकृतियोंकी किस गुणस्थानमें व्युच्छित्ति होती है ? इत्यादि कर्मबंध संबंधी विषयोंका जीवकी अपेक्षा से विशद विवेचन है । (४) वेदना खंड चौथा है । इस खंड के अंतर्गत कृति और वेदना अनुयोगके आश्रयसे, कारणकी प्रधानतासे वेदनाका अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है । (५) पांचवें खंडका नाम वर्गणा है । इस खंडका मुख्याधिकार बंधनीय' है । जिसमें तेईस प्रकारकी वर्गणाओंका वर्णन और उनमेंसे कर्मबंधके योग्य वर्गणात्रों का विस्तारसे विवेचन किया गया है । (६) छठे खंडका नाम महाबंध है । उसमें भूतबलि आचार्यने प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों प्रकारके बंधोंका विधान खूब विस्तार से किया है ।
हम उपर बतला चुके है कि कषायप्राभृतको 'पेज्जदोसपाहुड' भी कहते हैं । इसमें पंद्रह अधिकार हैं। उनमेंसे पेज्जदोस विहत्ति में केवल उदयकी प्रधानता से व्याख्यान किया गया है । आगेके चौदह अधिकारों में बंध, उदय और सत्त्व आदिके आश्रयसे कषायोंका विस्तृत विवेचन है | दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म, राग, द्वेष, मोहरूप एवं कषाय और नो- कषायरूप है । षड्खंडागममें अनेक अनुयोगों द्वारा आठ कमोंके बंध, बंधक, आदिका विस्तार से वर्णन है । परंतु इस कषायप्राभृत में केवल मोहनीय कर्मका ही मुख्यतासे वर्णन है । कषायप्राभृतमें तीन ग्रंथ एक साथ चलते हैं । कषायप्राभृत मूल गाथाएं है जो कि गुणधराचार्य कृत हैं । और उस पर यतिवृषभाचार्य की चूर्णी-वृत्ति एवं श्री वीरसेनस्वामीकी जयधवला टीका है ।
ताडपत्रीय प्रतियोंका लेखन काल-
धवला सं ० १ की अन्तिम प्रशस्तिसे विदित होता कि मंडलिनाडुके भुजबल गंगपेर्मडि देवकी काकी एडवि देमियक्कने यह प्रति श्रुतपंचमी व्रतके उद्यापन के समय शुभचंद्राचार्यको समर्पित की थी। शुभचंद्राचार्य देशीगण के थे । और बन्निकेरे उत्तुरंग चैत्यालय में उस समय विराजमान थे ।
शुभचंद्रदेवकी गुरुपरंपरा, व उनके स्वर्गवासका समय श्रवणबेलगोला शिलालेख सं० ४३ ( ११७ ) में पाये जाते हैं, उनका स्वर्गवास शक सं० १०४५ श्रावण शु० १० शुक्रवारको हुआ था । अर्थात् उनको स्वर्गस्थ करीब ८२२ वर्ष हुए हैं ।
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