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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ निम्न प्रकारसे हो सकती है । कर्णपार्य ( ११४० ) नेमिनाथ पुराण । नेमिचन्द्र ( ११७०) लीलावती, अर्धनेमिपुराण । अग्गल ( ११८९) चन्द्रप्रभ पु० । बंघवर्म ( १२०० ) हरिवंशाभ्युदय, जीवसंवोधने । आचण्ण ( ११९५ ) वर्धमान पु० । पाइपंडित ( १२०५ ) पार्श्वनाथ पुराण । जन्न ( १२०९) अनन्तपु० यशोधरचरित । शिशुमायण ( १२३३ ) त्रिपुरदहन, अंजनाचरित्रे । गुणवर्म ( १२३५ ).पुष्पदंतपु० चन्द्राष्टक । कमलभव ( १२३५) शान्तीश्वर पुराण । अंडय्य । (१२३५ ) कब्विगर काख । कुमुदेन्दु (१२७५ ) रामायण । हस्तिमाल ( १२६०) अादिपुराण (गद्य) ।
शिलाहार गंगरादित्यके कालमें उत्पन्न कर्णपार्यका नेमिनाथ पुराण अद्भुत चम्पूकाव्य है । लीलावति शृंगारिक उपन्यास है जिसकी वस्तु संक्षिप्त होनेपर भी दृश्यादिके सुन्दर वर्णनोंसे ग्रन्थ दीर्घकाय हो गया है। इनकी कल्पनाने 'सूर्यको अदृष्ट तथा विधातासे अनिर्मित वस्तु भी कविसे परे नहीं' किम्बदन्तीको सत्य कर दिया है । कलाकान्त, भारती-चित्त-चोर आदि विशेषण इनकी योग्यताके परिचायक हैं। बन्धुवर्मसे पार्श्वपंडित तकके लेखक एक ही श्रेणीके हैं। जन्न कल्पनाशील न होकर भी प्रसाद पूर्ण है। यशोधरचरितमें चित्रित अहिंसा धार्मिकता तथा सांसारिकताका सुन्दर समन्वय है। दोनों ग्रन्थ महत्त्वके काव्य हैं अतएव होयसल-यादव नृपति द्वारा दत्त 'चक्रवर्ती, राजविद्वत्सभा-कलहंस, आदि उपाधियां आश्चर्य चकित नहीं करतीं । कामदहन खाण्ड-काव्य ही अंडय्यकी रव्यातिका कारण हुआ है । कवित्वके अतिरिक्त इस उपान्याससे उनका मातृभाषा प्रेम तथा उत्साह भी फूट पड़ता है। शिशुमायण तथा कुमुदेन्दुने चम्पू शैलीको त्यागकर 'सांगत्य' 'षट्पदि' छन्दोंको लेकर जनपदके जनका विशेष अनुरञ्जन किया है । ये सभी कावि अनेक भाषाओंके पंडित थे तथा संस्कृत बहुल भाषा लिखते थे । फलतः 'कन्नड संस्कृतके आश्रित है' आरोपके साथ जन-मन तृप्त नहीं हया। इसी प्रातृप्तिने बारहवीं शतीमें साहित्यिक-दार्शनिक क्रान्ति की सृष्टि की। वसवके वीरशिव मतकी स्थापना तथा 'वचनों' की रचनाने नूतन युगको जन्म दिया। जिससे प्रभावित हो नयसेनने धर्मामृत लिखकर संस्कृत शैलीके विरूद्ध क्रान्ति की थी। यह स्थिति देखकर भी उन्होंने भावी विपत्तिके प्रतिरोध तथा जन मन अनुरंजनका सुविचारित प्रयत्न नहीं किया था। जिसका परिणाम जैनधर्मके लिए घातक हुअा। तथापि कतिपय व्यक्तियोंने इस स्थितिका सामना प्रचारात्मक ग्रन्थ लिखकर किया था। ऐसे लेखकोंमें निम्न कवि प्रधान थे । ब्रह्मशिव (११२५) समयपरीक्षे, त्रैलोक्य चूड़ामणिस्तोत्र । वीरणंदि (११५३) आचारसार तथा टीका । वृत्तविलास (११७० ) प्राभृतत्रय, तत्त्वार्थ परमात्मप्रकाशिके । माघणंदि (१२६० ) शास्त्रसार समुच्चय । नागराज (१३००) पुण्यास्रव । कनकचन्द्र (१३०० ) मोक्षप्राभृत टीका ।
ब्रह्मशिवके समयपरीक्षेमें प्राप्तागम तथा अनाप्तागम विवेचन करते हुए वैदिक शास्त्रोंकी न्यूनताओंका संकेत किया है। किन्तु चम्पू तथा गम्भीर विषय होनेके कारण यह जन-प्रिय न हो सका