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वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ
शब्द अपनाये गये थे। करगस (क्रकच ) अग्ग ( अर्घ ) वेहार ( व्यवहार ) सक्कद ( संस्कृत ) स्सिी (श्री) आदि तद्भव शब्द हैं जो संस्कृत शब्दोंके प्राकृतमय कन्नड़ रूप हैं।
सरसति ( सरस्वती ), विजोदर (विद्याधर ), दुजोधन ( दुर्योधन ) आदि तद्भव नाम हैं । ( वग्ग-व्याघ्र ), तिगलपेरे (ससि-शशी) बर्दु ( मिलतु मृत्यु), यदु ( श्रोसद औषधि ), बान् (आगस=अाकाश ), आदि देश्य शब्द हैं। इनके अतिरिक्त अगल ( रकेवी), भावरि ( मुनि भिक्षा), अरियेरुकार ( चर ), रंदवणिग (पाचक ), मादेल (पूंजी ), आदि शब्द भी बनाये गये थे एसे कितने ही शब्दोंका अब भी चलन है । तथा वक्तव्यके समझानेके लिए संस्कृत शब्दोंका यथेच्छ प्रयोग हुआ है।
शब्दोंके निर्माणके साथ साथ कन्नड़पर संस्कृत व्याकरणकी भी छाया पड़ी है। संस्कृत वर्णमाला संज्ञाएं, सातकारक, सम्बन्धवाची सर्वनाम, समास, सति-सप्तमी, कर्मवाच्य, आदि इसके ही सुफल हैं। जैनोंके इस परिवर्द्धनके कारण कितने ही विद्वान कन्नड़को संस्कृतकी पुत्री कल्पना करते हैं । संस्कृत छन्दोंका उपयोग द्राविड़ षट्पादि, त्रिपादि, रगले, अक्कर, आदि छन्दोंके साथ किया है।
साहित्य निर्माण-कन्नड़ जैन कवि तथा लेखकोंने सर्वत्र समन्तभद्र, कविपरमेश्वर तथा पूज्यपादका स्मरण किया है इन आचार्योंकी लेखनीसे भी कन्नड़में कुछ लिखा गया था यह नहीं कहा जा सकता, हां इनके संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंपर कन्नड़में टीकाएं अवश्य उपलब्ध हैं । श्री वर्धदेव; अपरनाम तुंबलराचार्यने (६५० ई० ) तत्त्वार्थ महाशास्त्रपर चूड़ामणि टीका लिखी थी। इनके समकालीन शांमकुंदाचार्य ने कन्नड़ प्राभृतोंकी रचना की थी। अर्थात् इस समय तक कन्नड़ भाषा दार्शनिक ग्रन्थ तथा कविता लिखने योग्य हो गयी थी। इस समयसे लेकर राष्ट्रकूट राजा, नृपतुंग देव ( ८१४-७८ ई० ) तकके अन्तरालमें निर्मित कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। नृपतुंगदेव अपने 'कवि राजमार्ग' में कितने कन्नड गद्य पद्य निर्माताओं का ससम्मान उल्लेख करते है। भामहके काव्यालंकार, दंडीके काव्यादर्शसे लिये जानेपर भी इस ग्रन्थके विषयमें भाषा और पद्योंकी अनुकूलताकी दृष्टि से परिवर्तन किया गया है । इनका उत्तर-दक्षिण मार्ग भेद कन्नड़ भाषा विज्ञानके प्रारम्भकाद्योतक है । ८७७ से ९४० ई० तकका समय पुनः सुसुप्तिका समय था । अद्यतन शोधोंने हरिवंशपुराण तथा शूद्रक पद्योंके यशस्वी रचयिता गुणवर्म तथा नीतिवाक्यामृत के कन्नड़ टीकाकार आचार्य नेमिचन्द्रको कन्नड़ साहित्यके इस युगके निर्माता सिद्ध किया है ।
___ इसके बाद हम कन्नड़ साहित्यके स्वर्ण युगमें आते हैं । क्यों कि आदिपुराण तथा भारतके रचयिता श्री पंप ( ल० ९४० ई० ), शान्तिपुराण जिनाक्षरमालेके निर्माता पन्न ( ल० ६५०), त्रिषष्ठि
१ श्रवणबेलगोल शिलालेख सं० ३७, ७६, ८८ बादामिका एक शिलालेख सन् ७०० ई० का ( इण्डियन एण्टेक्वा० भा० १०, पृ०६१) सिद्ध करते हैं कि कन्नड़ उस समय तक कविताके योन्य हो गयी थी। इनमेंसे एक शाल विक्रीडित, दो मत्तेभविक्रिडित तथा एक त्रिपदि छन्दमें है।