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औपपातिक सूत्रका विषय गम्भीर तथा सारगर्भित है । चम्पानगरी, पुण्णभद्द उपाश्रय, उसके उद्यानोंके अशोक वृक्ष, विम्बसारका पुत्र राजा कुणिक, रानी धारिणी तथा भ० महावीरके वर्णन स्पष्ट तथा साङ्गोपाङ्ग हैं। इसके साथ साथ भ० वीरके समवशरण तथा राजा कुणिककी बन्दनायात्रा के चित्रण भी चित्ताकर्षक हैं ।
पपातिक सूत्र के अनुसार वैमानिक देव उत्तम देव हैं । इनके बाद ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी आते हैं । वैमानिक देव, सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तंव, कापिष्ठ, शुक्र, सहस्रार आदि स्वगमें विभक्त हैं । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारकादि ज्योतिषी देव हैं। भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, आदि व्यन्तर देव हैं। असुर, नाग, सुपर्ण, विद्युत, अमि, दीप, समुद्र, दिक्, पवन, आदि भवनवासी देव हैं। इनसे निम्न श्रेणी के जीवोंमें पृथ्वी - जल-अनिवायुकायिक जीव गिनाये हैं ।
स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य तथा दर्पण ये आठ (अष्ट- ) मंगल द्रव्य हैं(सू० ४९) । अगले (५३-५) सूत्रों में कुछ और मंगल द्रव्योंकी भी चर्चा है । सामाजिक जीवन से ब्राह्मणोंकी प्रधानताको समाप्त करनेके उद्देश्य से कतिपय मंगल द्रव्योंकी कल्पना की गयी है। बौद्धधर्म में भी इसका अनुसरण है" तीर्थंकरों के लक्षणों का वर्णन करते हुए उन सब शंख पद्मादिका वर्णन है जो वैदिक साहित्य में भी पाये जाते हैं। भगवान महावीरको धर्म चक्रका प्रवर्तक श्रेष्ठ चक्रवर्ती कहा है । बौद्ध साहित्य में भी इसकी समता समुपलब्ध है ।
वानप्रस्थ ग्रहण करके गंगा के किनारे तपस्या में लीन तापसोंके वर्णन में अग्निपूजक सकुटुम्ब साधुयों का वर्णन है जो भूमिपर सोते थे । वे याग-यज्ञादिमें लीन, सपरिग्रह व्यक्ति थे । पानीके कलश तथा रसोईके वर्तन उनका परिग्रह था । वे विभिन्न प्रकार से तप करते थे - कोई शंख अथवा कुलधमनक बजाते थे, कोई चर्म तथा मांसके लिए हिरण मारते थे तो दूसरे कम हिंसाको करनेके लिए हाथीको मारते थे, कोई सीधा दण्ड लिये अथवा एक दिशा में दृष्टि एकाग्र किये चलते थे । वे नदी अथवा समुद्रतीर पर वृक्षमूल में रहते थे । पानी, वायु जल, वनस्पति, मूल, कन्द, वल्कल, फूल, बीज आदि उनके भोज्य पदार्थ थे | पंचाग्नि तप करके उन्होंने अपने शरीरको जला दिया था । इसी सूत्र में पवैया समणोंका भी उल्लेख है जो अशिष्ट प्रकार से इन्द्रिय भोगों में लीन थे तथा नृत्यगान ही जिनकी साधना थी ।
इसीमें ब्राह्मण तथा क्षत्रिय परिव्राजकोंके भेदका वर्णन है । उन दार्शनिकोंका वर्णन है जो कपिलका सांख्य, भार्गवका योग, आदि मार्गका अनुसरण करते थे तथा भारतीय तपमार्गके बहूदका कुटिव्रता, हंसा तथा परमहंसा श्रेणियोंके द्योतक थे। कोई कोई कृष्ण परिव्राजक थे । आजीविकोंको
१ खुद्दक पाठान्तर्गत मंगल सुत्त पृ० २-३, महामंगल जातक सं० ४५३, सुत्तनिपात पृ० ४६-७ ।
२ औपपातिक सूत्र भा० १६, दीघनिकाय भा० ३. लक्खण सुत्तन्त ।
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