________________
औपपातिक-सूत्रका विषय श्री डा० विमलचरण ला, एम० ए०, बी० एल०, पीएच. डी , डी० लिट०
अोवाइय-सूय' (औपपातिक सूत्र) अथवा 'उववाइय सूय' इवे. जैन उपाङ्गोंमें सर्वप्रथम है । उववाइयका अर्थ सत्ता होता है । इसपर अभयदेवसूरिकी प्राचीनतम टीका है। इसमें १८६ सूत्र हैं प्रत्येक सत्र विषय विशेषका परिचायक सन्दर्भ है अथवा पद्य सूत्र में प्रत्येक गाथा या पाद किसी विषयका वर्णन करता है । प्रारम्भिक सूत्र गद्य तथा अन्तिम पद्य रूप हैं । सूत्र १६८-९ सिद्धोंकी स्थिति तथा स्वभावके प्ररूपक होनेके कारण विशेष मोहक हैं । ४९, ५६, ७६ तथा १४४ सूत्रोंमें इसी प्रकार के स्मृति सन्दर्भ हैं । वर्णनकी शैली वैचित्र्य लिये हुए है अर्थात् मूल तथा विवेचन एक ही जगह एकत्रित् हो गये हैं। समस्त वस्तु भगवान महावीर तथा चम्पाके कुणिकके मिलन तथा भ० महावीर और गणधर इन्द्रभूतिके प्रश्नोत्तर के प्रसंगसे उपस्थित की गयी है। समस्त विवेचनका प्रधान उद्देश्य भ० महावीरकी सर्वोपरि महत्ता तथा लोकोत्तर व्यक्तित्त्वका ज्ञापन उनके उपदेशोंकी कैवल्यसे उत्पत्ति,वीरके 'गृहस्थ साधक नैष्टिक अनुयायियोंकी उन्नत अवस्था, को समझाना है । तथा सिद्धपद सर्वोपरि है । द्वितीय भाग ( सूत्र ६२-१८९) में गुरु परम्पराका वर्णन है। अभिधम्म पिटकका 'पुग्गलपण्णत्ति' भाग प्राणि वर्गका विकास क्रमसे वर्णन करता है, किन्तु वह सब वर्णन मनोवैज्ञानि तथा प्राचार मूलक है ; ऐतिहासिक नहीं । 'नित्था' अथवा लक्ष्यों के प्रतिपादक सूत्र इनकी ठीक विपरीत दिशामें पड़ते हैं।
वस्तुके साक्षात् प्रतिपादनात्मक शैली औपपातिक सूत्रकी अपनी विशेषता है। वर्णनमें स्वाभाविकता तथा सरलता सर्वत्र लक्षित होती हैं। अतः यइ सहज कलासा प्रतीत होता है । आत्मविजय तथा आत्म-सिद्धि रूप जैन सैद्धान्तिक आदशोंसे अोतप्रोत होकर भी इसकी रचना स्पष्ट, धारावाही,
१ यद्यपि सूत्र ग्रन्थोंके वर्तमान रूपमें दिगम्बर तथा श्वेताम्बरोमें भेद है तथाथि उनके नाम और प्रधान वर्ण्य विषयों को लेकर ऐसी स्थिति नहीं है। 'डास० औपपातिक सूत्र' नामसे श्री ई०ल्यूमनने इस सूत्रको 'अभा०क्यूर डाई कु० मो०, हर० वोन डा० डयू. मो० गैस० "भा०८,२ लिपजिग १८८३")। संस्कृत टीका सहित दूसरा संस्करण आगमोदय ग्रन्थमालासे निकला है। एन० जी० सूरूका विवेचनात्मक संस्करण विशेष उपयोगी है। २ एस० लेवी (ज० ए० १९१२ टी० २०)।
४३२