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औपपातिक सूत्रका विषय यह सूत्र रिउ(ऋग् )-वेद, यजुवेद ( यजुर्वेद ), सामवेद, अहण्ण (अथर्ष )-वेद, इतिहास ( पञ्चम वेद ) निघण्टु, छह वेदाङ्ग, छह उपांग, रहस्स ( स्य ) ग्रन्थ, षष्ठितंत्र, आदि वैदिक साहित्यकी तालिका देता है । संक्खाण ( अंक गणित ), सिक्खा (ध्वनि ), कप्प, वागरण (व्याकरण) छन्द, निरुत्त (क्त), जोइष ( ज्यौतिष' ), आदि के सहायक ग्रन्थ रूपमें ही वेदाङ्गोंका निरूपण है । इसमें सांख्य तथा योग दर्शनोंका ही उल्लेख है यद्यपि अणुअोगद्दार सुत्तमें बौद्ध सासनं, विसेसियं, लोकायतं, पुराण, व्याकरण, नाटक, वैसिकं, कोडिलीयं, काम सूत्र, घोडयमुहं आदिके उल्लेख हैं । वत्थुविज्जा (वास्तुशास्त्र) का निर्देश है । तथा नगर, पुर, ग्राम, विविधभवन, प्रासाद, सभागृह, दुर्ग, गोपुर, साज सज्जा, निर्माण, तथा खाद परीक्षा, भवन निर्माण, सामग्री परीक्षा, उद्यान निर्माण, आदि इसके क्षेत्रमें आते हैं। निर्माता 'थपति' अथवा बडढकि नामसे प्रसिद्ध थे। तक्षण पाषाणोत्कीर्णन आदि इसी विद्याके अंग थे।
जैन साहित्य 'नक्खत्त विजा' के विकासका वर्णन करते हैं । सूर्य चन्द्रादिके स्थान, गति, संक्रमण, प्रभाव, आदिका विशद विवेचन मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि सूत्रकी रचनाके समय लोग ग्रहण, नक्षत्र, ग्रह, ऋतुओं, आदिसे ही परिचित नहीं थे अपितु ज्यौतिषी, ऋतु, वृष्टि, आदिके समयमें भविष्यवाणी भी करते थे । बौद्ध साहित्यसे भी इसका समर्थन होता है।
चम्पा नगरमें राजा बिम्बसारके पुत्र कुणिकके अभिषेक महोत्सवका वर्णन है। इस समय प्रभु वीर भी वहां पधारे थे पुण्णभद्द चैत्यमें उत्सव हुआ था। इसके चारों ओर सघन वन थे। विविध स्थानों तथा वर्गों के लोग प्रभुके दर्शनार्थ आये थे। लिच्छवि, मल्ल, इक्ष्वाकु, ज्ञात्रि, आदि क्षत्रिय वहां आये थे । राजपिता बिम्बसार उत्सवमें नहीं थे। राजाकी पत्नियोंमें धारिणी अथवा सुभद्रा प्रमुख थीं । अजातशत्रुकी पत्नी तथा प्रसेनजितकी पुत्री वजिराकी इस प्रसंगमें अनुपस्थिति रहस्यमय है । अंग तथा मगधके राजनैतिक सम्बन्धों की भी चर्चा नहीं है। कुणिकका अभिषेक अंगके कुमारामात्य रूपसे हुआ था अथवा स्वतंत्र शासक रूपसे; इस विषयकी सूचना सूत्रमें नहीं है । शंका होती है कि क्या कुणिक अजातशत्रु ही था । यहां पर सब व्यक्तियोंका आदर्श चित्रण है । राजामें बौद्धिक तथा कायिक सभी शुभ लक्षण थे फलतः वह अभिनन्दनीय, आदरणीय एवं पूजनीय था । रानियां भी शील-सौन्दर्यका भंडार थी। परिखा, गोपुर, प्रासाद, भवन, उद्यान क्रीडास्थल, सम्पत्ति, समृद्धि, स्थायी आनन्द, आदिके कारण स्वर्ग समान ही थी । इन सब वर्णनोंसे वीरप्रभुकी महत्ता तथा विरक्तिका चित्रण होता है। किन्तु वर्णनों तथा उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि यह सूत्र भगवान वीर तथा उनके उपदेशों के बहुत समय बाद लिखा गया होगा।
१. औ. सू. वि. १६०-७॥ २. ओ. सू, वि, ७७ ।
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