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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ सन्देह करनेकी जगह नहीं है । इनमें से कतिपय प्राचीन आख्यानोंकी यहां चर्चा की जा रही है । उपलब्ध आख्यानोंमें निम्न लिखित पांच निःसन्दिग्ध सुदूर प्राचीनकालसे सम्बन्ध रखते हैं
(१) राजा निमीका कथानक नौवें अध्ययनमें आया है । ये मिथिलाके राजा थे और चार समकालीन प्रत्येकबुद्धों या स्वयं सम्बुद्धोंमें अन्यतम थे । स्वयंसम्बुद्धों' से अभिप्राय उन सिद्ध पुरुषोंसे है जो विना किसी गुरुके ही अपने ही प्रयत्नसे बोधि प्राप्त करनेवाले होते हैं । वे अपना ज्ञान दूसरोंको देकर मुक्त नहीं कर सकते । वे 'तोर्थेकर' से इस बातमें भिन्न होते हैं । राजा निमिकी संबोधि तथा वैराग्यका आख्यान अपनी लोकप्रियताके कारण वैदिक-बौद्ध साहित्यमें भी है। ब्राह्मणके वेषमें इन्द्रके प्रश्न करने पर निमिने अपनी वर्तमान वैराग्यमयी स्थितिका बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। निमिकी यह प्रसिद्ध उक्ति यहां उपलब्ध होती है-हमारे पास कोई भी वस्तु विद्यमान नहीं है । हम अकिञ्चन हैं । हम सुखसे जीवन विताते हैं । मिथिलाके जल जाने पर भी मेरा कुछ भी नहीं जलता।
(२) हरिकेशकी कथा-(१२ वें अध्ययनमें)-इस कथाके द्वारा तपस्या करनेवाले धर्मशील चाण्डालकी श्रेष्ठता याज्ञिक ब्राह्मणोंसे बढ़कर सिद्धि की गयी है । टीकाकारोंने कथाका सविस्तर वर्णन टीकामें किया है । बौद्धोंके 'मातङ्ग जातक' ( जातक ४/९७) में भी ऐसा ही आख्यान है । 'यज्ञ की यहां आध्यात्मिक व्याख्याकी गयी है । ब्राह्मणोंके प्रश्नपर हरिकेशने इसकी अच्छी मीमांसा की है तप अग्नि (ज्योति ) है; जीव अग्निस्थान (वेदि ) है; कार्योंके लिए उत्साह स्तुवा है; शरीर गोमय है, कर्म ही मेरा इन्धन है; संयम, योग तथा शान्ति ऋषियोंके द्वारा प्रशंसित होम है जिसका मैं हवन करता हूं।' धर्म ही मेरा तालाब है, ब्रह्मचर्य निर्मल तथा आत्माके लिए प्रसन्न, शान्त तीर्थ ( नहाने का स्थान ) है; उस में स्नान कर, मैं विमल, विशुद्ध तथा शीतल होकर अपने दोषको छोड़ रहा हूं२ ?'
यज्ञकी यह आध्यात्मिक कल्पना उपनिषदोंमें भी ग्राह्य है। ज्ञानकाण्डकी दृष्टिमें कर्मकाण्डका मूल्य अधिक नहीं हैं । इसलिए मुण्डक उपनिषदें यज्ञ अदृढ़ नौका रूप बतलाया गता है (प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपाः)।
(३) चित्रसंभूतकी कथा-(१३ अ० )-इस कथाके अनुरूप ही बौद्ध जातक 'चित्तसंभूत' (जा० ४९८) की कथा है । जातककी गाथाओंके शाब्दिक अनुकरण भी यहां बहुलतासे उपलब्ध होते हैं ।
१ सुहं वसामों जीवामो येसि नो नस्थि किंचण !
मिहिलाए उज्झमाणीए नमे उज्झइ किंचण ॥ २ तवो जीई जोवो जोईथाणं जोगा सुया सरीर कारिसंग कम्मेहा रांजय जोग सन्ती होम हुगामि इसिण पसत्थं ॥४४।। धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे अगाविले अत्तपसन्न लेसे। जहिं सि नाओ विमलो विसुद्धो सुसीइओ पजहामि दोस ॥४६।
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