________________
जैन कथाओंकी योरप यात्रा सभात्रों द्वारा ही ये कथाए भारतसे बाहर गयी होंगी। एक शंका यह भी हो सकती है कि जैनधर्म तो बहुत कुछ भरतखण्डमें ही रहा है. फिर उसकी कथाएं बाहर कैसे गयों ? किन्तु भारतीय संस्कृतिको जैन धर्मकी अनुपम देनका विचार करते ही इसका समाधान स्वयं हो जाता है । यह कहना अति कठिन है कि भारतीय संस्कृतिको जैन, बौद्ध तथा वैदिक धर्मों में से किसने कितना दान दिया है। यह निश्चित है कि भारतीय धर्मकथात्रोमय योरूपीय कथाएं भारतसे ही गयी थीं । पूर्वी भारतके समान उत्तर तथा पश्चिम भारतकी कथाएं भी योरूप पहुंची हैं । १९२२ ई० में 'जोव्वनीस हरतल'ने लिखा था कि गुजरात की श्वेताम्बर जैन कथाएं भी योरूपमें प्रचलित हैं । उदाहरण स्वरूप उन्होंने संस्कृत तथा गुजराती ग्रंथमें प्राप्त 'रत्नचूड़ कथा' का उल्लेख किया था। यहूदियोंकी कितनी ही कथाओंका उद्गमस्थान भारत था । भारतमें कथा साहित्यका भी आदान प्रदान था इसीलिए कितनी हो जैन कथाएं बौद्ध साहित्यमें पायी जाती हैं और बौद्ध धर्मके साथ वे तिब्बत, रूस, ग्रीस सिसली, इटली, आदि देशों तक चली गयी हैं। वास्तवमें भारतीय कथा साहित्यमें धर्म भेद नहीं है तथा समस्त धर्मोंके कथा साहित्यको भारतीय कथा कहना ही उपयुक्त होगा । जैन, वृहत्कथाकोशकी इस साहित्यमें अनुपम स्थिति है । इसकी 'कडारपिंग कथा' वासुदेव रिंडीमें ही नहीं मिलती है, अपितु बढ़ते बढ़ते इटली तक गयी हैं और संभवतः शेकस्पियरके एक नाटककी मूल वस्तु बन गयी है यद्यपि बाजली नाटकमें यह साधारणसी घटना रूपमें उपलब्ध होती है।
१, ट्वाइनी कृत कथाकोशके अनुवादकी भूमिका पृ. ९६-७ । २, इण्डियन हिस्टोरीकल क्वारटरली १९५६ सेप्टे०-दिस० में लेखकका लेख !
४२५