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जैन कथाओं की योरुप यात्रा
प्रा० कालीपद मित्र एम० ए०, बी० एल०, सहित्याचार्य
ट्वानीका अनुवाद - 'कथाकोश' का ट्वानीकृत अनुवाद देखनेके पश्चात् 'कुमारपाल - प्रतिबोध' देखने पर यद्यपि ऐसा लगा है कि बहुत कुछ अंशोंका अनुवाद शुद्ध है । तथापि ट्वानीके अनुवादकी आधारभूत प्रति किसी प्राकृत प्रतिका संस्कृत भाषान्तर रही हो गी ऐसी कल्पना भी मनमें श्रती है। तथा वही मूल प्राकृत ग्रन्थ कुमारपालप्रतिबोधका भी स्रोत होना चाहिये । इतना ही नहीं हेमचन्द्रकृत परिशिष्ट पर्व भी आंशिक रूपसे उसी मूलग्रन्थका भाषान्तर होना चाहिये । डा० उपाध्ये द्वारा सम्पादित हरिषेणकृत वृहत्कथाकोशके प्रकाशित होनेपर यह अनुमान स्पष्ट हो गया है क्योंकि प्रकृत कथाकोश प्राकृत 'आराधना' का संस्कृत रूप मात्र है ।
हरिषेणका श्राराधना मूलाधार - श्री ट्वानीने अपने अनुवाद में उन भागोंका भाषान्तर नहीं किया है जो उन्हें प्राप्त प्रतिमें प्राकृतमें ही थे । तथा सम्प्रति आराधना कथाकोश और कु० प्र० की सहायतासे पूर्ण किये जा सकते हैं । इस प्रकारके स्थलोंकी संख्या पर्याप्त है । कहीं कहीं मूलकी स्पष्टताका उल्लेख करके ट्वानीने यथामति अनुवादको पूर्ण करनेका प्रयत्न किया है? | अनुवाद तथा कुमा० प्रतिवोधका पारायण करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनोंका मूल स्रोत कोई प्राकृत ग्रन्थ था जो कि हरिषेणका 'आराधना' ही हो सकता है। जैसा कि डा० उपाध्येके उपर्युल्लिखित ग्रन्थ से भी सिद्ध होता है ।
विश्व कथाओं का मूलस्रोत अराधना --ट्वानीने अपने अनुवाद में यह भी संकेत किया है. कि कथाकोश तथा योरूपकी कथाओं में पर्याप्त समता है-
(क) एक किसान अपने भोजन के एक भागको सत्पात्र में देनेका नियम किया था । तथा यथाशक्ति वह जिन लयको भी दान देता था। एक दिन वह बहुत भूखा था । पत्नीके भोजन लाते ही वह मन्दिर गया और सत्पात्र ( मुनि, आदि) की प्रतीक्षा करने लगा। किसी देवको उसकी परीक्षा
१ कुरुचन्द्र कथानक पृ० ७९-८, धन्यकथानक, भरत कथानक पृ० १९२५ । ( ओरिएण्टल ट्रान्सलेशन फण्ड नवीं माला २, १८९५ )
१२ वही पृष्ठ २०८ की कुमा० प्रति० पृ ५९ "अकयत्तस्स इत्यादि' से तुलना ।
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