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वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
इसके बादकी भी इसकी अनेक प्रतिलिपियां भारतभर में मिलती हैं। यह प्राचीनतम वृत्ति भी लेखक रूपसे श्री विमल गुरुका स्मरण करती है। गुजराती बालबोध टीका विमलसूरिको ही कर्त्ता बताती है । श्रीआनन्दसमुद्रकी संक्षिप्त वृति भी इसीकी पोषक है । इसपर निर्मित अवचूरि तथा कथामय वृत्तियां भी यही सिद्ध करती हैं।
शंकराचार्य सहित प्रतियां - बृहत्स्तोत्ररत्नाकर तथा बृहत्स्तोत्र - रत्नहार में वेदान्त स्तोत्रों के साथ मुद्रित प्र० रत्न० माला 'कः खलु नालं क्रियते' आदिसे प्रारम्भ होकर 'श्री मत्परमहंस... विरचिता' आदि में समाप्त होती है । वर्नेल केटलाग वाले संस्करण से " रचिता शंकरगुरुणा विमला विमलोत्तररत्नमालेयं" आदिके साथ “श्री मत्परमहंस... आदिमें" समाप्त होती है । शंकर सीरीजमें “... विमलाश्च भान्ति सत्समाजेषु (६७ ) " के उपरान्त ' इति कण्ठगता विमला.... ' तथा 'श्रीमत्परमसंसादि' के साथ समाप्त होती है । शंकराचार्य के नाम के साथ एक अन्य प्रति प्रश्नोत्तर मणिरत्नमाला नामसे मिलती है ।
इसका प्रारम्भ - " अपार संसार समुद्रमध्ये सम्मजतो मे शरणं किमस्ति ? गुरो ? कृपालो ? कृपया वदैतद् विश्वेशपादाम्बुज दीर्घनौका । १ ।” तथा अन्त — "कण्ठं गता श्रवणं गता वा प्रश्नोत्तराख्या मणिरत्नमाला |
तनोतु मोदं विदुषां सुरम्या ( प्रयत्नाद् ) रमेश गौरीश कथेव सद्यः ॥३२॥” 'श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचिता प्रश्नोत्तर रत्नमाला समाप्ता ।' रूपसे होता है । इन सबका स्थूल परीक्षण ही यह सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त है कि मूलकृतिमें ये बलवद् परिवर्तन किये गये हैं । फलतः निराधार एवं व्यर्थ हैं । इस संक्षिप्त सामग्री के आधारपर विचारक स्वयमेव लेखकका निर्णय कर सकते हैं । जिसमें ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण भी बहुत अधिक साधक होगा ।
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