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महाकवि रइधू घृणित एवं नृशंस कार्यका जिक्र भी किया है । यद्यपि उनमें की अधिकांश मूर्तियां खंडित करा दी गयी हैं; परन्तु फिर भी उनमें को कुछ मूर्तियां आज भी अखंडेत मौजूद हैं। किलेसे निकलते ही इस विशाल मूर्तिका दर्शन करके दर्शकका चित्त इतना आकृष्ट हो जाता है कि वह कुछ समयके लिए सब कुछ भूल जाता है और उस मूर्तिकी ओर एकटक देखते हुए भी तबियत नहीं भरती। सचमुच यह मूर्ति कितनी सुन्दर, कलात्मक और शान्तिका पुंज है । इसके दर्शनसे परम शान्तिका स्रोत बहने लगता है । यद्यपि भारतमें जैनियोंकी इस प्रकारकी और भी कई मूर्तियां विद्यमान हैं, उदाहरणके लिए श्रवणबेलगोलको बाहुबली स्वामीकी उस विशाल मूर्तिको ही लीजिये, वह कितनी आकर्षक, सुन्दर और मनमोहक है इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं। एकबार प्रसिद्ध व्यापारी टाटा अपने कई अंग्रेज मित्रोंके साथ दक्षिणकी उस मूर्तिको देखनेके लिए गया, ज्योंही वह मूर्तिके समीप पहुंचा और उसे देखने लगा तो मूर्तिको देखते ही समाधिस्थ हो गया, और वह समाधिमें इतना तल्लीन हो गया कि मानो वह पाषणकी मूर्ति है। तब उसके साथी अंग्रेज मित्रोंने उसे निश्चेष्ट खड़ा हुआ देखकर कहा कि टाटा तुम्हें क्या हो गया है जो हम लोगोंसे बात भी नहीं करते, चलो अब वापस चलें; परंतु टाटा व्यापारी उस समय समाधिमें लीन था, मित्रोंकी बातका कौन जवाब देता, जब उसकी समाधि नहीं खुली तब उन्हें चिन्ता होने लगी; किन्तु आध घंटा व्यतीत होते ही उक्त टाटाको समाधि खुल गयी और समाधि खुलते ही उसने यह भावना व्यक्त की, कि मुझे किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं हैं; किन्तु मरते समय मुझे इस मूर्तिका दर्शन हो। इससे मूर्तियोंकी उपयोगिताका अंदाज लग सकता है, ये मूर्तियां वैराग्योत्पादक और शांतिके अग्रदूत हैं, इनकी पूजा, बंदना, उपासना करनेसे जीव परमशान्तिका अनुभव करने लगता है । इस प्रकारकी कलात्मक मूर्तियोंका निर्माण करनेवाले शिल्पियोंकी अटूट साधना, अतुल धैर्य और कलाकी चतुराईकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है ।
कविवर रइधूने पार्श्वपुराण और सम्यक्त्वगुणनिधान नामके ग्रन्थोंमें ग्वालियरका विस्तृत वर्णन दिया है और वहांकी सुवर्णरेखा नामकी नदीका भी उल्लेख किया है और लिखा है कि उस समय गोपाचल ( ग्वालियर ) समृद्ध था और वहांके निवासियोंमें सुख-शान्ति थी, वे धर्मात्मा, परोपकारी, सज्जन थे। उस समय ग्वालियरका शासक राजा डूंगरसिंह था, जो प्रसिद्ध तोमर क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न हुआ था । डूंगरसिंह और उसके पुत्र कीर्तिसिंह या कीर्तिचन्द्र के राज्यमें प्रजामें किसी प्रकारकी अशान्ति न थी। पिता पुत्र दोनों ही राजा जैनधर्मपर पूरी आस्था रखते थे। यही कारण है कि उस समय ग्वालियरमें चोर, डाकू, दुर्जन, खल, पिशुन, तथा नीच मनुष्य नहीं दिखते थे। और न कोई दीन-दुखी ही दृष्टिगोचर होता था, वहां चौहटेपर सुन्दर बाजार बने हुए थे, जिनपर वणिकजन विविध वस्तुओंका क्रयविक्रय करते थे। वहां व्यसनी तथा हीन चरित्री मानव भी नहीं थे। नगर जिन-मन्दिरोंसे विभूषित था
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