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महाकवि रइधू
में हुशैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदीसे पराजित हो कर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़ कर भागा और भाग कर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंहकी शरण में गया था। तब कीर्तिसिंहने धनादिसे उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुंचाया भी था । कीर्तिसिंहके समयके दो लेख सन् १४६८ ( वि० सं० १५२५ ) और सन् १४७३ ( वि० सं० १५३० ) के मिले हैं | कीर्तिसिंहकी मृत्यु सन् १४७६ ( वि० सं० १५३६ ) में हुई थी । अतः इसका राज्यकाल संवत् १५१० के बाद १५१६ तक माना जाता है । इन दोनों राजाओंके समय में ग्वालियर में प्रजा बहुत सुखी एवं समृद्ध रही, और जैनधर्मका वहां खूब गौरव एवं प्रचार रहा ।
समकालीन विद्वान भट्टारक
कविवर रइधूने ग्वालियरका परिचय कराते हुए वहांके भट्टारकोंका भी संक्षिप्त परिचय 'सम्म - जिन चारिउ' की प्रशस्तिमें कराया है, और देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्त्रकीर्ति, गुणकीर्ति, मलयकीर्ति, और गुणभद्र आदिका नामोल्लेख पूर्वक परिचय दिया है । उनमें से यहां सहस्रकीर्तिसे बाद के विद्वान् भट्टारकोंका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है जो कविवर के समकालीन थे ।
भट्टारक गुणकीर्ति - यह भट्टारक सहस्रकीर्तिके शिष्य थे और उन्हींके बाद भ० पदपर आरूढ़
थे । यह बड़े तपस्वी और जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान् थे । इनका शरीर तपश्चरणसे अत्यंत हुए क्षीण हो गया था, इनके लघुभ्राता और शिष्य भ० यशः कीर्ति थे । भट्टारक गुणकीर्तिने कोई साहित्यक रचना की अथवा नहीं, इसका स्पष्ट उल्लेख देखने में नहीं आया । परन्तु इतना जरूर मालूम होता है कि इनकी प्रेरणा एवं उपदेशसे और कुशराजके आर्थिक सहयोगसे, जो ग्वालियर के राजा वीरमदेव के विश्वसनीय मंत्री थे, और जो जिनेन्द्रदेवकी पूजामें रत थे, जिसने एक उन्नत एवं विशाल चन्द्रप्रभु भगवानका चैत्यालय भी बनवाया था, जो स्वर्गलोककी स्पर्धा करता था, इन्ही कुशराजने पं० पद्मनाभ नामके एक कायस्थ विद्वान् द्वारा संस्कृत भाषा में 'यशोधरचरित' अथवा दयासुन्दर नामका एक महाकाव्य भी बनवाया था, जैसा कि इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके निम्न पद्योंसे प्रकट है—
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ज्ञाता श्री कुशराज एव सकलक्ष्मापालचूड़ामणिः । श्री मत्तोमरवीरमस्य विदितो विश्वासपात्र महान् । मंत्री मंत्रविचक्षणः क्षणमयः क्षीणारिपक्षः क्षणात् । क्षोण्यामीक्षण रक्षण क्षममतिजैनेन्द्रपूजारतः ॥ स्वर्गस्पर्द्धिसमृद्धिकोऽतिविमलच्चैत्यालयः कारितो । लोकानां हृदयङ्गमो बहुधनैश्चन्द्रप्रभस्य प्रभोः ।
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