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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ
की, दूसरी देहली नया-मन्दिरकी, तीसरी अागराके मन्दिरकी अोर चौथी सहारनपुर ला० प्रद्युम्नकुमारजीके मन्दिरकी । इन प्रतियोंमें, जिनमें बनारसकी प्रति बहुत ही अशुद्ध एवं त्रुटिपूर्ण जान पड़ी, कितनी ही गाथाएं ऐसी देखनेको मिली जो एक प्रतिमें हैं तो दूसरी में नहीं हैं, इसीसे जो गाथा किसी एक प्रतिमें बढ़ी हुई मिली उसका सूचीमें उस प्रतिके साथ संकेत किया गया है। ऐसी भी गाथाएं देखनेमें आयीं जिनमें किसीका पूर्वार्ध एक प्रतिमें है तो उत्तरार्ध नहीं, और उत्तरार्ध है तो पूर्वार्ध नहीं। और ऐसा तो बहुधा देखनेमें आया कि कितनी ही गाथाओंको विना संख्या डाले धारावाही रूपमें लिख दिया है, जिससे वे सामान्यावलोकनके अवसरपर ग्रन्थका गद्य भाग जान पड़ती हैं। किसी किसी स्थल पर गाथाओंके छूटनेकी साफ सूचना भी की गयी है; जैसे कि चौथे महाधिकारकी ‘णव-णउदि सहस्साणि' इस गाथा सं० २२१३ के अनन्तर अागरा और सहारनपुरकी प्रतियों में दस गाथात्रोंके छूटनेकी सूचना की गयी है और वह कथन-क्रमको देखते हुए ठीक जान पड़ती है-दूसरी प्रतियोंसे उनकी पूर्ति नहीं हो सकी । क्या अाश्चर्य जो ऐसी छूटी अथवा त्रुटित हुई गाथाश्रोंमेंका ही उक्त वाक्य हो । ग्रन्थ प्रतियोंकी ऐसी स्थितिमें दो चार प्रतियोंको देखकर ही अपनी खोजको पर्याप्त खोज बतलाना और उसके आधार पर उक्त नतीजा निकाल बैठना किसी तरह भी न्याय-संगत नहीं कहा जा सकता । इसलिए चतुर्थ प्रमाण भी इष्टको सिद्ध करनेके लिए समर्थ नहीं है।
(५) अब रहा अन्तिम प्रमाण, जो प्रथम प्रमाणकी तरह गलत धारणाका मुख्य आधार बना हुआ है । इसमें जिस गद्यांशकी अोर संकेत किया गया है और जिसे कुछ अशुद्ध भी बतलाया गया है । वह क्या स्वयं तिलोयपण्णत्तिकारके द्वारा धवला परसे, 'अम्हेहि' पदके स्थान पर 'एसा परूवणा' पाठका परिवर्तन करके उद्धृत किया गया है अथवा किसी तरह पर तिलोयपण्णत्तीसे प्रक्षिप्त हुअा है ? शायद इसका गम्भीरताके साथ विचार नहीं किया गया है । फलतः विना विवेचन के दिया गया निर्णय-सा प्रतीत होता है। उस गद्यांशको तिलोयपण्णत्तीका मूल अंग मान बैठना भी वैसा ही है और इसीसे गद्यांशमें उल्लिखित तिलोयपण्णत्तीको वर्तमान तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न दूसरी तिलोय. पण्णत्ती कहा गया है। इतना ही नहीं, बल्कि तिलोयपण्णत्तीमें जो यत्र तत्र दूसरे गद्यांश पाये जाते हैं उनका अधिकांश भाग भी धवलासे उधृत है, ऐसा सुझानेका संकेत भी है। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । जान पड़ता है ऐसा कहते और सुझाते हुए यह ध्यान नहीं रक्खा गया कि जो आचार्य जिनसेन वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके कर्ता बतलाये गये हैं वे क्या इतने असावधान अथवा अयोग्य थे कि जो 'अम्हेहि' पदके स्थान पर 'एसा परूवणा' पाठका परिवर्तन करके रखते और ऐसा करनेमें उन साधारण मोटी भूलों एवं त्रुटियोंको भी न समझ पाते जिनकी उद्भावना उक्त लेखमें की गयी है ? और ऐसा करके जिनसेनको अपने गुरु वीरसेनकी कृतिका लोप करनेकी भी क्या जरूरत थी ? वे तो बराबर अपने गुरुका कीर्तन और उनकी कृतिके साथ उनका नामोल्लेख करते हुए देखे जाते हैं; चुनांचे वीरसेन जब जयधवला
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