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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
पायी है । आ० सिंहनन्दिद्वारा गंगराज्य स्थापनाकी तिथि ३४० ई० और माधव प्रथमका समय ३४०-४०० ई०१, २५० ई०' अथवा २५०-२८३ ई० तथा २३० ई०३ अनुमान किये गये हैं। तामिल इतिहास 'कोंगुदेश राजकल्ल' में यह तिथि सन् १८८ ई० मानी है, और श्री बी० एल० राइसने भी १८८ ई० ही माना है और माधव प्र० का समय १८६-२४० ई० दिया है। बादमें नागमंगल शिलालेखके आधार पर उन्होंने इस तिथिको शक २५ ( सन् २६३ ई०) अनुमान किया था। दूसरे विद्वानोंने भी राइस साहबके प्रथम मतको ही स्वीकार किया है।
___ आचार्य सिंहनन्दि द्वारा दक्षिण कर्णाटकमें गंगबत्तड़ि राज्यकी स्थापना ई० दूसरी शतीके अन्त (१८८-१८९ ई० ) में हुई थी इसमें कोई सन्देह नहीं और समन्तभद्र सिंहनन्दिके पूर्ववतीं थे यह शिलालेख आदि आधारोंसे सुनिश्चित है। यह भी संभव है कि उन दोनोंके बीच अत्यल्प अन्तर हो और वे प्रायः समकालीन भी हों । वस्तुतः, श्रवणबेलगोल शि० लेख न० ५४ (६७) के आधार पर लुइस राइसके शब्दों में-“उन्हें ( समन्तभद्रको ) उनके तुरन्त पश्चात् उल्लिखित गुरू सिंहनन्दिसे अत्यल्प समयान्तरको लिये हुए मानकर, जोकि सर्वथा स्वाभाविक निष्कर्ष है, दूसरी शती ई. के उत्तरार्धमें हुआ सुनिश्चित रूपसे माना जा सकता है ।"
६. डा० सालतोरके अनुसार तामिल देशमें धर्मप्रसार करनेवाले विशिष्ट जैनगुरुओंमें समन्तभद्र, जिनका नाम जैनपरम्परामें सुविख्यात है, प्रथम आचार्योंमें से हैं । उनका समय संभवतया दूसरी शती ईस्वी है । यद्यपि श्वेताम्बर 'वीर वंशावली' के आधारपर रा. ब. हीरालालके मतानुसार वे वीर सं. ८८९ ( सन् ४१९ ई०) में, और नरसिंहाचार्यके अनुसार लगभग ४०० ई० में होने चाहिये। किन्तु सुपरिचित जैन ( दिग.) अनुश्रुति उनका समय शक ६० (१३८ ई०) प्रकट करती है। राइस भी उन्हें दूसरी शती ई० का ही विद्वान मानते हैं। अतः जब हम ११ वीं से १६ वीं शती तकके दक्षिण देशस्थ विभिन्न शिलालेखोंमें दी हुई जैनगुरु परम्पराओंकी जांच करते हैं तो परम्परागत अनुश्रुति विश्वसनीय माननी पड़ती है। सन् ११२६ के शि० लेखके अनुसार भद्रबाहु (द्वि०) कुन्दकुन्द और समन्तभद्र क्रमबार हुए । ११६३ ई० के शिलालेखमें कथन है कि 'भद्रबाहुके वंशमें कुन्दकुन्द अपरनाम पद्मनन्दि हुए, तत्पश्चात् उमास्वामि अथवा गृद्धपिच्छाचार्य हुए जिनके शिष्य बलाकपिच्छ
१ श्री बी० पी० कृष्णराव कृत 'गगाज ओफ तलबाट पृ० ३२ । २ श्री गोविन्द पै, क. हि. रि. भा. २ सं. १,पृ० २९ । ३ 'मैसूर एण्ड' कुर्ग. पृ० ३२ ! ४ सा. इण्डि. ज. पृ० १०९। ५प्रा० रामरखामी आयंगरका लेख मै. आ. रि. १९२१ पृ०२८ । ६ केटलाग ओफ मैनु . ११ म् में 'भद्र'को समन्तभद्र माननेकी भूल की गयी है। ७ कवि चरिते. १, पृ०४। ८ एपी. कर्णा. भा. २--२६ पृ० २५ ।
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