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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उसके शमनार्थ शिवभक्त शिवकोटी राजाके भीमलिङ्ग शिवालयमें पहुंचे वहां शिवार्पित नैवेद्य-१२ खंडुक प्रमाण तंदुलान्न-को शिव द्वारा ग्रहण करा देनेका अधिकारियोंको आश्वासन देकर उसे स्वयं उदरार्पण करने लगे । ऐसा करते करते पांच दिनमें रोग शान्त हो गया, किन्तु अब शिवार्पित नैवेद्य बचने लगा और उनका भेद खुल गया। राजाने परीक्षार्थ इन्हें शिवको नमस्कार करनेको वाध्य किया। उस समय इन्होंने भक्तिपूर्ण स्वयम्भूस्तोत्रकी रचना की । इनकी जिनेन्द्र के प्रति दृढ़ एवं विशुद्ध भक्तिके अतिशयसे स्तुति के बीचमें शिवलिंगके स्थानमें चन्द्रप्रभु जिनेन्द्रकी प्रतिमा प्रकट हुई और इन्होंने उसे नमस्कार किया। राजा आदि समस्त दर्शक अति प्रभावित हुए। तब आचार्यने अपना रहस्य खोला और धर्मका उपदेश दिया । स्वयं फिरसे मुनिदीक्षा धारण कर ली । इनके प्रभावसे राजा भी इनका तथा इनके धर्मका परम भक्त हो गया । इसके पश्चात् आचार्यने उत्तर दक्षिण, पूर्व पश्चिम समस्त भारतमें धर्म प्रचारार्थ भ्रमण करके धूर्जटि जैसे अनेक तत्कालीन शैव, वैष्णव, बौद्ध, आदि महान्वादियों पर विजय प्राप्त की और जैनधर्मका सर्वतोमुख उत्कर्ष किया । वादार्थ जिन विशिष्ट स्थानोंमें वे गये उनमें पाटलिपुत्र (पूर्वस्थ ), मालव, ठक्क (पंजाब ), सिन्धु, कांचीपुर, संभवतया विदिशा भी थे । इनके अतिरिक्त लाम्बुश, पुण्ड्रवर्धन ( बंगदे शस्थ ), दशपुर, और वाराणसी (बनारस ) में भी उनका जाना और वाद करना पाया जाता है । करहाटकके नरेशकी राज्यसभासे उनका व्यक्तिगतसा संबंध प्रतीत होता है, क्योंकि उक्त राजाको सम्बोधन करके अपनी वादविजय एवं भ्रमण संबंधी वृत्तान्त इस प्रकार सुनाते हैं कि मानों अपनी कार्य सम्पन्नताका वृत्तान्त किसी आत्मीयको सुना रहे हों । दक्षिण भारतके ऐतिहासिक साक्षी
इतिहास कालमें नर्मदाके दक्षिणभागमें बसी जातियोंमें नागजाति सर्वोपरि और सुसभ्य थी' । लंका तक प्रायः सर्वत्र फैली हुई थी। अत्यन्त विनाशकारी महाभारत युद्ध के परिणाम स्वरूप उत्तरापथकी वैदिक-आर्यराज्य शक्तियोंके ह्राससे लाभ उठाकर चिरकालसे दबी हुई नागजातिने समस्त भारतमें अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी जैसा कि काशी, पांचाल, आदिके उरगवंशी राज्योंके इतिहाससे सिद्ध है । चौथी शती ईसा पूर्वमें मौर्य साम्राज्यके प्रकाशमें ये मन्द पड़ गये थे किन्तु मौर्य साम्राज्यके ह्रासके पश्चात फिर इनका उदय हुआ था ।
मध्यभारत एवं उत्तरी दक्षिण में तीसरी शती० ई० पूर्वसे सातवाहन आन्ध्र शक्तिकी स्थापनाने तत्तद् नाग राज्योंको न पनपने दिया, बल्कि अधिकांश नागराजे सातवाहनोंके आधीन प्रान्ताधिकारी हो गये और आन्ध्रभृत्य महारथी कहलाने लगे। किन्तु गौतमीपुत्र शातकर्णी (१०६-१३० ) के पश्चात
१ पुराणों के अनुसार नर्मदा तीरपर माहिष्मतीमें भी नागराज्य था और उसके उपरान्त वहाँ हैहयोंका राज्य हुआ—(रायचौधरी)। २'भारतीय इतिहासका जैन युग' अनेकान्त व०७, कि०७-१० पृ० ७४ ।
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