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स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास सातवाहन शक्ति के शिथिल हो जानेपर इन आन्ध्रभृत्योंने स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने शुरू कर दिये, और एक बार फिरसे नाग युगकी पुनरावृत्ति हुई । जिसे स्मिथ आदि कुछ इतिहासकारोंने भारतीय इतिहासका 'अन्धकार युग' कहा है किन्तु डा० जायसवाल आदिने उस अन्धकारको भेदकर उसे 'नाग-वाकाटकयुग' कहा है । भारशिव, वाकाटक, त्रुटुनाग आदि वंश इस युगके अति शक्तिशाली राज्यवंश थे जिनका अस्तित्व गुप्तसम्राट समुद्रगुप्त ( ३१०-३७६ ई० ) के समय तक था । गुप्त साम्राज्य कालमें भारतीय नागसत्ताएं सदैवके लिए अस्त हो गयीं । दक्षिणी फणिमंडलकी सत्ता भी दूसरी शती० ई० के मध्यमें कदंब, पल्लव, गंग, आदि स्थायी एवं महत्वाकांक्षी नवीन राज्यवंशोंकी स्थापना तथा पांड्य ,चोल आदि प्राचीन तामिल राज्योंके पुनरुत्थानके कारण अन्तको प्राप्त हुई।
अत्यन्त प्राचीन कालसे ही नाग जाति जैनधर्मकी अनुयायी थी और भ० पार्श्वनाथ (८७७७७७ ई० पू०) के समयसे तो विशेष रूपसे जैनधर्म की भक्त हो गयी थी । दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी प्रवृत्ति कमसे कम भ० अरिष्टनेमिके समयसे चली आती थी, सुराष्ट्र देशस्थ द्वारकाके यादववंशमें उत्पन्न तथा उर्जयन्त ( गिरनार पर्वत ) से निर्वाण लाभ करनेवाले भगवान नेमिनाथने महाभारत कालमें दक्षिण भारतमें ही जिनधर्मका प्रचार विशेष रूपसे किया था। उनके पश्चात् चौथी शती० ई० पू० में भद्रबाहु श्रुतकेवलिके मुनिसंघ एवं अपने शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य सहित दक्षिण देशमें आगमनसे दक्षिणात्य जैनधर्मको अत्यधिक प्रोत्साहन मिला । तिनेवली आदिके मौर्य कालीन ब्राह्मी शिलालेख जो जैनोंकी कृति हैं और जैन श्रमणोंकी प्राचीन गुफाओंमें पाये जाते हैं, इस बातके साक्षी हैं । दक्षिण भारतके विविध राजवंश तथा उनसे सम्बद्ध उरगपुर तथा नागवंशी राजाओं, सामन्तों आदिके वर्णनसे सुस्पस्ट है कि नागवंश भारतका प्राचीनतम तथा सर्वव्याप्त वंश था । इस सब इतिहासपर दृष्टि डालनेसे ज्ञात होता है कि आचार्य प्रवर दूसरी शती ई० के अतिरिक्त अन्य किसी समयमें नहीं हुए। जैन मुनिजीवनसे अनभिज्ञ कुछ अजैन विद्वानोंको यह भ्रम भले ही हो सकता है कि वे कन्नडिग थे या तामिल, किन्तु इसमें किसीको कोई सन्देह नहीं है कि वे दूर दक्षिणके ही निवासी थे और समस्त दक्षिणमें इतिहास काल में केवल एक ही प्रसिद्ध फणिमंडल (नाग राज्य समूह ) था जो पूर्वी समुद्रतटपर गोदावरी
और कावेरीके बीच स्थित था, जिसका अस्तित्व सामान्यतः तीसरी शती ई० पूर्वसे मिलता है तथा ई० पूर्व १५७ से सन् १४० ई० तक सुनिश्चित रूपसे मिलता है, साथ ही सन् ८० ई० में यह फणिमंडल अखंड था, इसकी राजधानी उरगपुर थी और चोलप्रदेशका नागवंश इसमें सर्वप्रधान था। सन् ८० और १४० ई० के बीच किसी समय यह फणिमंडल दो मुख्य भागों ( उत्तरी और दक्षिणी अथवा असवानाडु और चोलमंडल ) में विभक्त हो गया । सन् १५० ई० के लगभग इस फणिमंडलका अस्तित्व
१ समुद्रगुप्तका प्रयाग स्तंभवाला शिलालेख । २ लेखकका लेख-'नाग सभ्यताकी भारतको देन'-अनेकान्त, व० ६, कि ७ पृ० ८४६ ।
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