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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
में ही उन्होंने प्राप्तमीमांसा लिखी है....अधिक संभव तो यह है कि समन्तभद्र और अकलङ्कके बीच साक्षात विद्याका संबंध हो । दिगम्बर परम्परामें स्वामी समन्तभद्रके बाद तुरन्त ही अकलंक आये" से स्पष्ट है । और ये अकलंकको, हरिभद्र याकिनी (७००-७७० ई०) के समकालीन मानते हैं । उपर्युक्त कथनकी पुष्टि करते हुए न्याय कुमुदचन्द्र भाग २ के प्राक्कथनमें लिखा है- "जब यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि समन्तभद्र पूज्यपादके बाद कभी हुए हैं। और यह तो सिद्ध ही है कि समन्तभद्र की कृति के ऊपर सर्व प्रथम व्याख्या अकलंककी है, तब इतना मानना हो गा कि अगर समन्तभद्र और अकलंकमें साक्षात् गुरु-शिष्य भाव न भी रहा हो तब भी उनके बीचमें समयका कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकता। इस दृष्टिसे समन्तभद्रका अस्तित्व विक्रमकी सातवीं शतीका अमुक भाग हो सकता है।" आगे लेखक इस बातपर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि यदि पूज्यपाद समन्तभद्रके उत्तरवर्ती होते तो यह कैसे हो सकता था कि वे “समन्तभद्र की असाधारण कृतियोंका किसी अंशमें स्पर्श भी न करें।" संधवी जी के शब्दोंमें ही लेखक (पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ) ने मेरे संक्षिप्त लेखका विशद और सबल भाष्य करके यह अभ्रान्त रूपसे स्थिर किया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं। इस प्रकार मुख्तार साहब द्वारा निर्णीत स्वामी समन्तभद्रके समय सम्बंधी प्रचलित मान्यता ( ईसाकी दूसरी शती) के विरुद्ध एक नवीन मत सामने आता है।
इस मान्यताका मूलाधार यह बताया जाता है कि समन्तभद्रने अपने देवागम (आप्तमीमांसा) की रचना पूज्यपादकी सवार्थसिद्धि के मङ्गल श्लोकपरसे की है, ऐसा विद्यानन्दके अष्टसहस्रीगत एक कथनसे प्रतीत होता है, अतः समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं । इस प्रश्नको लेकर 'मोक्षमार्गस्य नेतारं', 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' आदि शीर्षकोंसे विद्वानोंके बीच कई लेखों द्वारा लम्बा शास्त्रार्थ चला था । परिणाम यह हआ कि नवीन मान्यता स्थिर न हो सकी क्योंकि आचार्य विद्यानन्दकी मान्यताको सन्देहकी दृष्टिसे देखा जाने लगा है और उसका आधार खोजा जाने लगा है। नवीन मान्यताके समर्थकोंको अनुभव हुआ कि विद्यानन्दके सामने उक्त मंगल श्लोकको उमास्वामिकृत मानने के लिए कोई स्पष्ट पूर्वपरम्परा नहीं थी, उन्होंने अकलंककी अष्टशतीके एक वाक्यसे अपनी भ्रान्तधारणा बना ली थी, उसके पूर्वापर सम्बन्धपर ठीक विचार नहीं किया था । इसीसे अष्टसहस्रीके उक्त वाक्यका सीधा अर्थ न करके उलटा अर्थ किया गया है ।इस प्रकार नवीन मान्यताका मूलाधार ही नष्ट हो जानेसे अर्थात् 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मङ्गल श्लोकके पूज्यपादकृत न होकर उमास्वामीकृत सिद्ध हो जानेसे स्वामी समन्तभद्रके पूज्यपादके पूर्ववर्ती रहते हुए भी उक्त श्लोकको लेकर अपने देवागमकी रचना करने में कोई बाधा नहीं आती।
१ अकलङ्क ग्रन्थत्रय प्राक्कथन, पृ०८-९ । २ न्यायकुमुदचन्द्र, भा॰ २, प्राक्कथन, पृ० १७ । ३ अनेकान्त वर्ष ५, जैन सिद्धान्त भास्कर १९४२ ।
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